पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३१३

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कुल सामाजिक पूंजी का पुनल्पादन तथा परिचलन 1 1 दन जारी प्रश्यिा में उत्सादक उपभोग ( उत्पादन की प्रत्यन प्रक्रिया) उन रूप परिवर्तनों ( भौतिक दृष्टि से विनिमय ) महित , जिनके कारण वह होता है और उन रूप परिवर्तनो अथवा विनिमयों नहित वैयक्तिक उपभोग भी समाविष्ट होते हैं, जो उसे जन्म देते हैं। इस प्रश्यिा में एक और धन शक्ति में परिवर्ती पूंजी का परिवर्तन और इसलिए पूंजीवादी उत्पादन प्रप्रिया में श्रम शक्ति का समावेश शामिल होता है। यहां मजदूर अपनी पण्य वस्तु , श्रम शक्ति के विप्रेता का काम करता है और पूंजीपति उसके नेता का। किंतु दूसरी ओर पप्य वस्तुओं के विश्व में मजदूर वर्ग द्वारा उनका ऋय और इसलिए उनका वैयक्तिक उपभोग भी शामिल होता है। यहां मजदूर वर्ग पथ्य वस्तुओं के नेता के रूप में और पूंजीपति मजदूरों को उनके विप्रेता के रूप में पाते हैं। माल पूंजी के परिचलन में वेशो मूल्य का परिचलन और इसलिए वह क्रय-विक्रय भी शामिल होता है, जिसके द्वारा पूंजीपति अपने वैयक्तिक उपभोग , वेशी मूल्य के उपभोग का निदिकरण करते हैं। अतः सामाजिक पूंजी के रूप में कुल वैयक्तिक पूंजियों के परिपथ पर और इसलिए उसकी समग्रता में विचार किया जाये, तो उसमें पूंजी का परिवलन ही नहीं, वरन सामान्य माल परिचलन भी समाहित होता है। अंतोक्त परिचलन में मूलतः केवल दो घटक हो सकते हैं : १)वास्तविक पूंजी का परिपय और २) उन पण्य वस्तुओं का, जो वैयक्तिक उपभोग में दाखिल होती हैं, फलतः उन वस्तुओं का परिपय , जिन पर मजदूर अपनी मजदूरी, और पूंजीपति अपना बेशी मूल्य (अयवा उसका एक अंश) खर्च करता है। किसी भी सूरत में पूंजी के परिपय में बैशी मूल्य का परिचलन भी समाविष्ट होता है, क्योंकि यह मूल्य पूंजी का एक भाग होता है और इसी प्रकार परिवर्ती पूंजी का श्रम शक्ति में परिवर्तन , मजदूरी की अदायगी भी शामिल होती है। किंतु इन वेशी मूल्य और पण्य वस्तुओं पर मजदूरी का व्यय पूंजी परिचलन की कोई कड़ी नहीं होता, यद्यपि इस परिचलन के लिए कम से कम मजदूरी का खर्च किया जाना ग्रावश्यक है। खंड १ में पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का विश्लेपण एक वैयक्तिक क्रिया और साथ ही एक पुनरुत्पादन प्रक्रिया - वेशी मूल्य का उत्पादन और स्वयं पूंजी का उत्पादन - के रूप में किया गया था। परिचलन के क्षेत्र में पूंजी के रूप और सत्व में आनेवाले परिवर्तनों को विस्तृत निरूपण के बिना मान लिया गया था। यह पहले से मान लिया गया था कि एक ओर पूंजीपति अपना उत्पाद उसके मूल्य पर वेचता है, और दूसरी ओर वह परिचलन क्षेत्र में उस प्रक्रिया को फिर से शुरू करने या चालू रखने के लिए उत्पादन के वास्तविक साधन पाता है। परिचलन क्षेत्र में जिस एकमात्न क्रिया का हमने विस्तृत निल्पण किया था, वह थी पूंजीवादी उत्पादन की बुनियादी शतं के रूप में श्रम शक्ति का क्रय-विक्रय । इस खंड २ के पहले भाग में उन विभिन्न रूपों पर, जिन्हें पूंजी अपनी वृत्तीय गति में धारण करती है और स्वयं इस गति के विभिन्न रूपों पर विचार किया गया था। खंड १ में जिस कार्य काल पर विचार किया गया था, उसमें अब परिचलन काल भी जोड़ा जाना चाहिए। दूसरे भाग में परिपय का प्रावर्ती होने के नाते , अर्थात प्रावतं के रूप में विवेचन किया गया था। यह दिखाया गया था कि एक ओर पूंजी के विभिन्न घटक (स्थायी और प्रचल ) किस तरह विभिन्न अवधियों में और विभिन्न तरीकों से रूपों के परिपय पूरे करते हैं; दूसरी गोर उन परिस्थितियों की छानबीन की गई थी, जो कार्य अवधि और परिचलन अवधि की +