पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३१७

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कुन नामाजिर पूंजी का पुनरुत्पादन तथा परिचलन . बन्नुनों का में विद्यमान इन उत्पादन तत्वों की निश्चित माना खरीदने के लिए आवश्यक दव्य पृती का परिमाण निर्धारित हो जाता है। अथवा पेशगी दी जानेवाली पूंजी के मूल्य का परिमाण निर्धारित हो जाता है। किंतु जिन सीमा तक यह पूंजी मूल्यों तथा उत्पादों के बप्टा का काम करती है, वह लचीली और परिवर्तनशील होती है। दूसरी बात के बारे में: यह स्वतः स्पष्ट है कि सामाजिक श्रम और उत्पादन साधनों का जो माग पिते हुए मिक्कों के प्रतिस्थापन के लिए द्रव्य की खरीदारी या पैदावार पर सालाना गर्न किया जाता है, यह pro tanto सामाजिक उत्पादन के परिमाण से कटौती करता है। रिंतु जहां तक उन द्रव्य मूल्य का संबंध है, जो अंशतः परिचलन माध्यम का और अंशतः अपसंचय का काम करता है, वह तो अर्जित किये, उत्पादन के उत्पादित साधन और संपदा के नैसर्गिक स्रोत के रूप में श्रम शक्ति के साथ-साथ मौजूद होता ही है। उसे इन पर लगाई सीमा नहीं माना जा सकता। उसके उत्पादन के तत्वों में रूपांतरण, उसके अन्य राष्ट्रों से विनिमय द्वारा उत्पादन के पैमाने का विस्तार किया जा सकता है। किंतु यह इसकी पूर्वकल्पना करता है कि द्रव्य सदा ही की भांति अपनी विश्व द्रव्य की भूमिका निवाह रहा है। उत्पादक पूंजी को गतिशील करने के लिए प्रावर्त अवधि की दीर्घता के अनुसार न्यूना- धिक द्रव्य पूंजी दरकार होती है। हम यह भी देख चुके हैं कि आवर्त अवधि के कार्य काल और परिचलन काल में विभाजन के लिए द्रव्य रूप में अंतर्हित अथवा निलंबित पूंजी में वृद्धि की आवश्यकता होती है। चूंकि प्रावतं अवधि कार्य अवधि की दीर्घता द्वारा निर्धारित होती है, इसलिए अन्य परि- स्थितियां ययावत रहें, तो वह उत्पादन प्रक्रिया की भौतिक प्रकृति द्वारा निर्धारित होती है, अतः वह इस उत्पादन प्रक्रिया के विशिष्ट सामाजिक स्वरूप द्वारा निर्धारित नहीं होती। फिर भी पूंजीवादी उत्पादन के अाधार पर अपेक्षाकृत दीर्घ अवधि के अधिक विस्तृत क्रियाकलाप कुछ लंबी ही अवधि के लिए द्रव्य पूंजी की बड़ी-बड़ी पेशगियों को आवश्यक बना देते हैं। अतः ऐसे क्षेत्रों में उत्पादन उस द्रव्य पूंजी के परिमाण पर निर्भर करता है, जो वैयक्तिक पूंजीपति को उपलब्ध होती है। यह अड़चन उधार पद्धति और उससे संवद्ध संस्थानों, यथा संयुक्त पूंजी कंपनियों द्वारा दूर कर दी गयी है। इसलिए मुद्रा बाजार में गड़बड़ से इन प्रतिष्ठानों का धंधा ठप हो जाता है, जबकि अपनी वारी में यही प्रतिष्ठान मुद्रा वाज़ार में गड़बड़ पैदा करते हैं। समाजीकृत उत्पादन के आधार पर उस पैमाने का पता लगाया जाना होगा, जिस पर उन कारवारों को कि जो अंतरिम अवधि में उपयोगी परिणाम के रूप में किसी भी उत्पाद की पूर्ति किये बिना लंबे समय तक श्रम शक्ति और उत्पादन साधनों का प्राहरण करते हैं, उत्पादन की उन शाखाओं को हानि पहुंचाये बिना चलाया जा सकता है, जो न केवल श्रम शक्ति और उत्पादन साधनों का निरंतर अथवा वर्ष में अनेक वार अाहरण ही करती हैं, बल्कि निर्वाह तथा उत्पादन साधनों की पूर्ति भी करती हैं। समाजीकृत तथा पूंजीवादी उत्पादन , दोनों में ही जो मजदूर व्यवसाय की छोटी कार्य अवधियोंवाली शाखाओं में काम करते हैं, वे पहले की ही भांति बदले में कोई उत्पाद दिये विना केवल कुछ समय तक उत्पाद का आहरण करते हैं, जब कि व्यवसाय की लंबी कार्य अवधियोंवाली शाखाएं बदले में कुछ भी देने से पहले निरंतर लंबे समय तक उत्पाद पाहारित करती हैं। इस प्रकार यह परिस्थिति थम प्रक्रिया विशेष के भौतिक स्वरूप से उत्पन्न होती है, उसके सामाजिक रूप से नहीं। समाजीकृत उत्पादन के मामले में द्रव्य पूंजी विलुप्त हो जाती है। उत्पादन की विभिन्न शाबानों को श्रम शक्ति 1