पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३२१

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3.. कुल मामाजिर पूंजी का पुनरुतादन तथा परिचलन प्रतिनीधि यंता को अनुमानित करने की बनिस्बत नियमित अधिक करता है; और उसी तमाम मनन के बाद फान का काफी बड़ा हिस्सा हमेशा प्रकृति के करने के लिए बाकी मता है। प्रतः कृषि में लगाये जानेवाले श्रमिक और कमकर मवेशी (वाह ! ) कारखानों के माना की तरह स्वयं अपने डाभोग के बराबर अथवा उन्हें काम में लगानेवाली पूंजी के मानियों के मुनाले मर्मत उनके बराबर मूल्य का ही नहीं, वरन उससे बहुत अधिक मूल्य का पुनानादन करने हैं। फ़ार्मर की पूंजी और उसके तमाम मुनाफ़े के अलावा वे भूस्वामी के. रिगये का नियमित पुनलादन करते हैं। यह किराया प्रकृति की उन शक्तियों की उपज माना जा सकता है, जिनका उपयोग जमींदार फ़ार्मर को किराये पर देता है। वह उन जातियों की कल्पित मीमा के अनुसार न्यूनाधिक होता है या दूसरे शब्दों में वह भूमि की कल्पित नंगगिर अथवा उन्नत उर्वरता के अनुसार न्यूनाधिक होता है। जितने को भी प्रादमी का काम गमाना जाता है, उसे घटा देने पर या उसका मुग्रावज़ा दे देने पर जो वच रहता है, वह प्रति का काम है। यह कुल उत्पाद के चौथाई से कदाचित ही कम और अक्सर उसके तिहाई मे ज्यादा ही होता है। कारगानों में लगाये उत्पादक श्रम की समान मात्रा कभी इतना बड़ा पुनरुत्पादन नहीं कर सकती। वहां प्रकृति कुछ नहीं करती, सब कुछ मनुष्य करता है ; और इसलिए पुनरुत्सादन हमेशा उसे करनेवाले कर्तामों की शक्ति के अनुरूप होगा। अतः कृषि में नियोजित पूंजी कारखानों में नियोजित किसी भी समान पूंजी के मुक़ाबले उत्पादक श्रम की और बड़ी मात्रा को ही गतिशील नहीं करती, वरन उत्पादक श्रम की जितनी मात्रा का वह नियोजन करती है, उसके अनुपात में भी भूमि की वार्पिक उपज और देश के श्रम में, देश- बानियों की वास्तविक संपदा और प्राय में कहीं अधिक मूल्य जोड़ती है !" (खंड २, अध्याय ५, पृष्ठ २४२१) गंड २, अध्याय १ में ऐडम स्मिथ कहते हैं : “वीज का भी पूरा मूल्य यथार्थतः स्थायी पूंजी ही है।" इनलिए पूंजी यहां पूंजी मूल्य के वरावर हो जाती है ; वह "स्थायी" रूप में विद्यमान होती है। यद्यपि वह (बीज ) खेत और खलिहान के बीच अागे-पीछे अाता- जाता रहता है, फिर भी कभी मालिक नहीं बदलता, इसलिए यथार्थत: परिचालित नहीं होता। फ़ार्मर उसे बेचकर नहीं, वरन उसकी बढ़ोतरी से मुनाफ़ा कमाता है।" (पृष्ठ १८६)। बात की निरर्थकता इस तथ्य में निहित है कि अपने पूर्ववर्ती केने की तरह स्मिथ भी स्थिर पूंजी के मूल्य का नवीकृत रूप में पुनः प्रकट होना नहीं देखते , अतः वह पुनरुत्पादन प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण तत्व नहीं देख पाते , बल्कि वस प्रचल और स्थायी पूंजी के अपने भेद की और वह भी ग़लत , एक मिसाल और दे देते हैं। स्मिथ के “avances primitives" और "avances annuelles" के "स्थायी पूंजी" और "प्रचल पूंजी" में अनुवाद में प्रगति " पूंजी" शब्द के व्यवहार में ही है, जिसकी अवधारणा सामान्यीकृत है और प्रकृतितंत्रवादियों के प्रयोग के "कृषि " क्षेत्र के लिए विशेष अभिप्राय से मुक्त हो जाती है; उनका पश्चगमन इस बात में निहित है कि "स्यायी" और "प्रचल" को सर्वोपरि भेद माना जाता है, और ऐसे ही रखा जाता है। .. . २. ऐडम स्मिथ १) स्मिय का सामान्य दृष्टिकोण ऐडम स्मिथ खंड १, अध्याय ६, पृष्ठ ४२ पर कहते हैं : “प्रत्येक समाज में हर. पण्य वस्तु की कीमत की परिणति अंततोगत्वा उन तीन भागों ( मजदूरी, लाम , किराये ) में से