पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३३६

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विषय के पूर्व प्रस्तुतीकरण ur ( का पुनम्त्पादन करता है, जो उसे मजदूरी के रूप में पेशगी दिया गया है या दिया जायेगा; वह पूंजीपति के लिए इस मजदूरी का समतुल्य पैदा करता है ; अतः वह पूंजीपति के लिए उस पूंजी का पुनरुत्पादन करता है, जिसे पूंजीपति श्रम शक्ति खरीदने के लिए फिर 'पेणगी" दे सकता है। तीसरा : माल की विक्री में उसके विक्रय मूल्य का एक भाग पूंजीपति द्वारा पेशगी परिवर्ती पूंजी को प्रतिस्थापित करता है, जिससे एक ओर वह फिर से श्रम शक्ति खरीदने के और दूसरी ओर मजदूर उसे फिर से वेचने के योग्य हो जाता है। मालों के सभी क्रय-विक्रय में - जहां तक सिर्फ़ इन लेन-देनों की ही वात है- यह महत्व- हीन है कि विक्रेता को अपने माल से जो प्राप्ति होती है, उसका क्या होता है, और ग्राहक के हाथों में उसकी खरीदी हुई उपयोग वस्तुओं का क्या होता है। इसलिए जहां तक केवल परिचलन प्रक्रिया का संबंध है, यह महत्वहीन है कि पूंजीपति द्वारा खरीदी श्रम शक्ति उसके लिए पूंजी मूल्य का पुनरुत्पादन करती है, और दूसरी ओर मजदूर अपनी श्रम शक्ति के क्रय मूल्य के रूप में जो धन पाता है, वह उसकी प्राय बनता है। मजदूर के वाणिज्यिक माल उसकी श्रम शक्ति - के मूल्य के परिमाण पर न तो इसका कोई असर पड़ता है कि वह उसके लिए "पाय" बनता है, न इसका कि ग्राहक द्वारा इस वाणिज्यिक माल का उपयोग उसके लिए पूंजी मूल्य का पुनरुत्पादन करता है। चूंकि श्रम शक्ति का मूल्य -- अर्थात इस पण्य वस्तु का उचित विक्रय मूल्य - उसके पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक श्रम की मात्रा द्वारा निर्धारित होता है और यहां श्रम की यह माना स्वयं श्रम की उस माना से निर्धारित होती है, जो मजदूर के आवश्यक निर्वाह साधन पैदा करने के लिए , अतः उसके अस्तित्व को बनाये रखने के लिए दरकार होती है, इसलिए मजदूरी वह प्राय बन जाती है, जिस पर मजदूर को निर्वाह करना होता है। ऐडम स्मिथ की वात विल्कुल ग़लत है, जब वह कहते हैं (पृष्ठ २२३ ) : “स्टॉक का वह भाग, जो उत्पादक श्रम के भरण-पोषण में व्यय किया जाता है उसके पूंजीपति के लिए पूंजी का कार्य कर चुकने के बाद ... उनकी [मजदूरों की] अाय बनता है।" पूंजीपति अपने द्वारा खरीदी श्रम शक्ति के लिए जो द्रव्य देता है, वह " उसके लिए पूंजी का कार्य करता है", क्योंकि इस प्रकार वह अपनी पूंजी भौतिक घटकों में श्रम शक्ति का समावेश करता है और इस तरह अपनी पूंजी को इस योग्य बनाता है कि वह पूर्ण रूप से उत्पादक पूंजी का कार्य करे। यह भेद करना आवश्यक है : श्रम शवित मजदूर के हाथ में माल है, पूंजी नहीं और वह उसके लिए तभी तक आय होती है, जब तक वह उसकी विक्री की लगातार पुनरावृत्ति कर सकता है ; वह पूंजी का कार्य विक जाने के बाद पूंजीपति के हाथ में स्वयं उत्पादन प्रक्रिया के दौरान करती है। जो चीज़ यहां दो बार काम देती है, वह श्रम शक्ति है : मजदूर के हाथ में माल की तरह, जो अपने मूल्य पर बेची जाती है ; उसे ख़रीदनेवाले पूंजीपति के हाथ में शक्ति उत्पादक मूल्य तथा उपयोग मूल्य के रूप में। किंतु मजदूर को पूंजीपति से धन की प्राप्ति तब ही होती है, जब वह उसे अपनी श्रम शक्ति का उपयोग दे चुका होता है , जव श्रम के उत्पाद के मूल्य में उसका सिद्धिकरण हो चुका होता है। पूंजीपति को यह मूल्य उसकी अदायगी करने से पहले ही मिल चुका होता है। इसलिए दो वार कार्य द्रव्य नहीं करता : पहले परिवर्ती पूजी के द्रव्य रूप में और फिर मजदूरी के रूप में। इसके विपरीत यह श्रम शक्ति है, जिसने दो बार कार्य किया है : पहले श्रम शक्ति की विक्री के समय माल की तरह ( मजदूरी की