पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३३९

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कुल सामाजिक पूंजी का पुनरुत्पादन तथा परिचलन " बात किसी प्रकार उस धारणा के तद्प नहीं है कि मूल्य इन तीन “संघटक. अंशों से संरचित होता है"। यदि तीन भिन्न सरल रेखाओं की लंबाई में स्वतंत्र रूप में निर्धारित करूं और फिर इन तीनों रेखात्रों को "संघटक अंश" मानकर इनसे चौथी सरल रेखा वनाऊं, जो इनके योग के बराबर हो, तो यह किसी प्रकार वैसी ही कार्य पद्धति न होगी, जैसी जव मेरे सामने कोई दी हुई सरल रेखा है और मैं किसी उद्देश्य से उसे विभाजित करता हूं; यानी कहें कि तीन भिन्न भागों में उसे "वियोजित" करता हूं। पहली स्थिति में रेखा की लंबाई. उन तीनों रेखानों की लंबाई के साथ पूर्णतया बदलती है, जिनका वह योग है ; दूसरी स्थिति में रेखां के तीनों अंशों की लंबाई इस तथ्य द्वारा प्रारंभ से ही सीमित रहती है कि वे एक दी हुई लंबाई की रेखा के अंश हैं। वस्तुतः, यदि हम स्मिथ के निरूपण के उस भाग परं जमे रहें, जो सही है, वार्षिक श्रम द्वारा नव सृजित और वार्पिक सामाजिक पण्य उत्पाद में समाहित मूल्य (वैसे ही जैसे प्रत्येक अलग पण्य वस्तु में अथवा प्रत्येक दैनिक , साप्ताहिक , आदि उत्पाद में ) पेशगी परिवर्ती पूंजी के मूल्य (अर्थात श्रम शक्ति खरीदने के लिए अभीष्ट मूल्यांश ) तथा उस वेशी मूल्य के योग के बराबर होता है, जिसका पूंजीपति अपने वैयक्तिक उपभोग साधनों में सिद्धिकरण कर सकता है- क्योंकि यहां साधारण पुनरुत्पादन को मान लिया गया है और यह भी कि अन्य परिस्थितियां यथावंत हैं ; इसके अलावा, अगर हम यह भी ध्यान में रखें कि ऐडम स्मिथ उस श्रम को , जो मूल्य रचता है, श्रम शक्ति का व्यय है और उस श्रम को, जो उपयोग .मूल्य रचता है, अर्थात उचित और उपयोगी रूप में व्यय किया जाता है, आपस में उलझा देते हैं, तो सारी धारणा का निचोड़ यह होता है : प्रत्येक माल का मूल्य श्रम का उत्पाद होता है। अतः यह वात वार्पिक श्रम के उत्पाद के मूल्य के बारे में अथवा समाज के वार्पिक पण्य उत्पाद के मूल्य के बारे में भी सही है। लेकिन चूंकि सभी श्रम अपने को १) आवश्यक श्रम काल में, जिसके दौरान मजदूर अपनी श्रम शक्ति की खरीद के लिए पेशगी पूंजी के समतुल्य मात्र का पुनरु- त्पादन करता है, और २) वेशी श्रम में वियोजित करता है, जिसके द्वारा मजदूर पूंजीपति को ऐसे मूल्य की पूर्ति करता है, जिसका वह कुछ समतुल्य नहीं देता, अतः वेशी मूल्य की पूर्ति करता है, इसलिए इससे यह नतीजा निकलता है कि समस्त माल मूल्य स्वयं को केवल इन दो संघटक अंशों में वियोजित कर सकता है, जिससे कि अंततोगत्वा वहं मजदूर वर्ग के लिए मजदूरी के रूप में और पूंजीपति वर्ग के लिए वेशी मूल्य के रूप में प्राय बनता है। जहां तक स्थिर पूंजी मूल्य का, अर्थात वार्पिक उत्पाद के निर्माण में उपभुक्त उत्पादन साधनों के मूल्य का संबंध है, इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती कि यह मूल्य किस प्रकार. नये उत्पाद के मूल्य में प्रवेश कर जाता है (सिवा इस शब्दावली के कि पूंजीपति अपना माल बेचते समय उसे ग्राहक से वसूल करता है), लेकिन चूंकि उत्पादन साधनं स्वयं भी श्रम के उत्पाद हैं, इसलिए अंततोगत्वा अपनी वारी में मूल्य के इस अंश में भी परिवर्ती पूंजी और वेशी मूल्य का, अावश्यक श्रम के उत्पाद का और वेशी श्रम के उत्पाद का समतुल्य समाहित हो सकता है। इस बात से कि इन उत्पादन साधनों के मूल्य उनके..नियोजकों के हाथ में पूंजी मूल्यों की तरह कार्य करते हैं, उनके - अगर हम मामले की तह तक जायें, तो- “मूलतः" दूसरों के हाथ में मूल्य के उन्हीं दो अंशों में, अतः आय के दो भिन्न स्रोतों में स्वयं को वियोजित कर लेने में कोई वाधा नहीं आती- भले हो ऐसा उन्होंने कभी पहले किया हो। यहां एक बात सही है : यह बात प्रत्येक वैयक्तिक पूंजी पर अलंग-अलग , अंतः प्रत्येक अलग , ,