पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३५५

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३५४ कुल सामाजिक पूंजी का पुनरुत्पादन तथा परिचलन . परिवर्ती पूंजी पेशगी दी जाती है, उसे उन्हें ग्राम तौर से उपभोग वस्तुओं पर वर्च करना होता है; और चूंकि साधारण पुनरुत्पादन को मान लेने पर मालों के मूल्य का वे अंश वस्तुतः प्राय के रूप में उपभोग वस्तुओं पर खर्च किया जाता है, इसलिए यह prima facie [प्रथमदृष्ट्या सप्ट है कि II के पूंजीपतियों से II के मजदूर जो मजदूरी पाते हैं, उससे वे अपने ही उत्पाद का मजदूरी के रूप में प्राप्त द्रव्य मूल्य की राशि के अनुरूप अंश फिर खरीद लेते हैं। इस तरह II का पूंजीपति वर्ग श्रम शक्ति की अदायगी के लिए अपने द्वारा पेशगी दी द्रव्य पूंजी को द्रव्य रूप में पुनःपरिवर्तित कर लेता है। यह ऐसा ही है, मानो उसने मजदूरों को मूल्य के प्रतीक मान दिये हों। जैसे ही मजदूर अपनी ही उत्पादित -- लेकिन पूंजीपतियों की वस्तुओं का एक भाग खरीदकर मूल्य के इन प्रतीकों का सिद्धिकरण करेंगे, ये प्रतीक पूंजीपतियों के हाथ में वापस आ जायेंगे। बस , ये प्रतीक मूल्य का प्रतिनिधित्व मान नहीं करते हैं, वरन साकार सोने या चांदी के रूप में वे मूल्य रखते भी हैं। आगे चलकर हम द्रव्य रूप में पेशगी परिवर्ती पूंजी की एक प्रक्रिया द्वारा, जिसमें मजदूर वर्ग ग्राहक के रूप में सामने आता है और पूंजीपति वर्ग विक्रेता के रूप में, इस तरह के पश्चप्रवाह का अधिक विस्तार से विश्लेषण करेंगे। किंतु यहां दूसरा मसला दरपेश है, जिसका अपने प्रस्थान बिंदु पर परिवर्ती पूंजी के इस प्रत्यावर्तन के सिलसिले में विवेचन करना जरूरी है। वार्पिक माल उत्पादन के संवर्ग II में उत्पादन की बहुविध शाखाएं होती हैं, किंतु इनके उत्पाद के अनुसार इन्हें दो बड़े उपविभागों में बांटा जा सकता है: क) उपभोग वस्तुएं, जो मजदूर वर्ग के उपभोग में आती हैं, और जिस सीमा तक वे जीवनावश्यक वस्तुएं हैं- मजदूरों की उपभोग वस्तुओं से गुण और मूल्य में अक्सर भिन्न होने पर भी-वे पूंजीपति वर्ग के उपभोग का अंश भी होती हैं। अपने प्रयोजन के लिए हम यहां इस समूचे उपविभाग को इसके लिहाज़ के बिना कि तंबाकू जैसा उत्पाद शरीरक्रियात्मक दृष्टि से वस्तुतः उपभोक्ता आवश्यकता है या नहीं, उपभोक्ता आवश्यकताएं कह सकते हैं। यह काफ़ी है कि वह अादत के कारण आवश्यकता है। ख) विलास वस्तुएं, जो केवल पूंजीपति वर्ग के उपभोग में आती हैं और इसलिए जिनका विनिमय उस व्ययित वेशी मूल्य से ही हो सकता है, जो मजदूर के हिस्से में कभी नहीं आता। जहां तक प्रथम संवर्ग का संबंध है, यह स्पष्ट है कि उसके अंतर्गत मालों के उत्पादन के लिए जो परिवर्ती पूंजी पेशगी दी जाती है, वह द्रव्य रूप में सीधे वर्ग II के पूंजीपतियों ( अर्थात II क पूंजीपतियों) के पास लौट आयेगी, जिन्होंने इन जीवनावश्यक वस्तुओं का उत्पादन किया है। वे इन्हें अपने ही मजदूरों को उन्हें मजदूरी में दी परिवर्ती पूंजी की राशि के अनुसार वेत्र देते हैं। जहां तक वर्ग II के पूंजीपतियों के इस समूचे क उपविभाग का संबंध है, यह पश्चप्रवाह प्रत्यक्ष होता है, चाहे उद्योग की विभिन्न संवद्ध शाखाओं के पूंजीपतियों के वीच होनेवाले लेन-देन कितने ही क्यों न हों, जिनके द्वारा वापस आनेवाली परिवर्ती पूंजी pro rata वितरित होती है। ये परिचलन प्रक्रियाएं हैं, जिनके परिचलन साधनों की पूर्ति सीधे उस द्रव्य द्वारा होती है, जिसे मजदूर खर्च करते हैं। किंतु उपविभाग II ख की स्थिति इससे भिन्न है। इस उपविभाग में उत्पादित मूल्य का समग्र अंश , II ख(प+वे), विलास वस्तुओं के दैहिक रूप में, अर्थात ऐसी वस्तुओं के रूप में होता है, जिन्हें मेहनतकश वर्ग उसी प्रकार नहीं खरीद सकता, जिस प्रकार वह उत्पादन साधनों के रूप में विद्यमान माल मूल्य I नहीं