पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३६१

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कुल सामाजिक पूंजी का पुनरुत्पादन तथा परिचलन मूल्य पर । साधारण पुनरुत्पादन के आधार पर केवल इतना माना गया है कि उपभोग निधि में समूचे बेशी मूल्य के बराबर मूल्यों की राशि का सिद्धिकरण होता है। इस प्रकार सीमाएं निर्धारित हैं। प्रत्येक क्षेत्र में कोई क के अंतर्गत ज्यादा खर्च कर सकता है, तो कोई ख के। किंतु इसकी अापती क्षतिपूर्ति हो सकती है, जिससे कि क और ख के पूंजीपति समूहों में, समूचे तौर पर, प्रत्येक दोनों में ही समानुपात में भाग लेता है। किंतु प्रत्येक ठोस मामले में संबंध - II के उत्पाद के समग्र मूल्य में दोनों तरह के उत्पादकों-क और ख -- के समानुपातिक हिल्ले - दिये हुए होते हैं और फलतः इस उत्पाद की पूर्ति करनेवाली उत्पादन शाखाओं के बीच निश्चित परिमाणगत संबंध भी दिया हुआ होता है ; वस , उदाहरण के लिए जो अनुपात चुना गया है, वह कल्पित है। यदि दूसरा उदाहरण लिया जाये, तो भी गुणात्मक पहलुओं में कोई तबदीली न होगी; केवल परिमाणगत निर्धारक बदल जायेंगे। किंतु यदि किन्हीं परिस्थितियों के कारण क और ख के सापेक्ष परिमाण कोई वास्तविक परिवर्तन हो जाता है, तो साधारण पुनरुत्पादन की परिस्थितियां भी तदनुसार बदल जायेंगी। चूंकि ( ख ) का सिद्धिकरण ( II क ) वे के तुल्य भाग में होता है, इसलिए यह निष्कर्ष निकलता है कि वार्पिक उत्पाद के विलास वस्तु-ग्रंश बढ़ते जाने और इसलिए विलास वस्तुओं के उत्पादन में श्रम शक्ति के अधिकाधिक भाग लगते जाने का अनुपात ( ख )प में पेणगी दी परिवर्ती पूंजी का परिवर्ती पूंजी के द्रव्य रूप की तरह फिर से कार्य करनेवाली द्रव्य पूंजी में पुनःरूपांतरण और इस कारण मजदूर वर्ग के II ख में नियोजित हिस्से का अस्तित्व और पुनरुत्पादन - उसे उपभोक्ता अावश्यकताओं की पूर्ति-पूंजीपति वर्ग की जूल- उसके वेशी मूल्य के काफ़ी हिस्से के विलास वस्तुओं से विनिमय पर निर्भर करता है। प्रत्येक संकट विलास वस्तुओं के उपभोग को तुरंत कम कर देता है, ( II ख) प के द्रव्य पूंजी में पुन:परिवर्तन को केवल आंशिक रूप में ही होने देकर विलंबित कर देता है और इस तरह विलास वस्तुओं के उत्पादन में लगे मजदूरों की कुछ संख्या को बेकार कर देता है और दूसरी ओर इस तरह वह उपभोक्ता आवश्यकताओं की विक्री को अवरुद्ध करके उसे घटा देता है। और यह उन अनुत्पादक मजदूरों का उल्लेख किये बिना , जिन्हें इसी समय वरखास्त किया जाता है, जिन मजदूरों को अपनी सेवाओं के बदले पूंजीपतियों की विलास व्यय निधि से एक अंश मिलता है (ये मजदूर स्वयं pro tanto विलास वस्तुएं हैं) और जो जीवनावश्यक वस्तुओं के उपभोग , आदि में काफ़ी हद तक भाग लेते हैं। समृद्धि के दिनों में इसका उलटा होता है, ख़ास तौर से मिथ्या समृद्धि के दिनों में , जब द्रव्य का सापेक्ष मूल्य , जो माल रूप में प्रकट होता है, अन्य कारणों से भी घट जाता है ( मूल्यों में किसी वास्तविक उलट-फेर के विना), जिससे मालों की कीमतें अपने ही मूल्यों से स्वतंवरूपेण चढ़ जाती हैं। जीवनावश्यक वस्तुओं का उपभोग बढ़ जाता है। यही नहीं, मजदूर वर्ग (अब अपनी समूची आरक्षित सेना द्वारा मुस्तैदी से प्रवलित ) भी अपनी पहुंच के बाहर की विलास वस्तुओं का और उन वस्तुओं का, जो दूसरे समय अधिकतर केवल पूंजीपति वर्ग के लिए उपभोक्ता “अावश्यकताएं" होती हैं, क्षणिक आनंद लेता है। अपनी वारी में इससे भी कीमतों में इज़ाफ़ा होता है। यह कहना कोरी पुनरावृत्ति करना है कि संकट कारगर उपभोग की दुर्लभता से अथवा कारगर उपभोक्ताओं की दुर्लभता से पैदा होते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था उपभोग की कारगर खर्ची पर, - - 3