पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३६३

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कुल सामाजिक पूंजी का पुनरुत्पादन तथा परिचलन 1 , यह II , जो २,००० के बराबर है , के परिचलन का हिसाव हुआ, जिसका 1 ( १,०००५+ +१,०००३) से विनिमय होता है। फ़िलहाल ४,००० 1 को छोड़ देने पर भी II अंतर्गत प+वे का परिचलन शेष रह जाता है। अव II क और II ख उपविभागों के बीच II(प+वे ) इस प्रकार बंटता है: २) II. ५००+५००३ = क (४००+४००३)+ख (१००+१००३)। ४००५ (क) अपने ही उपविभाग के भीतर परिचलन करता है ; जिन मजदूरों की उससे अदायगी की जाती है, वे अपने मालिकों , II क के पूंजीपतियों , से आवश्यक निर्वाह साधन खरीदते हैं, जिनका उत्पादन स्वयं उन्होंने किया है। चूंकि दोनों उपविभागों के पूंजीपति अपने वेशी मूल्य का ३/५ भाग II क के उत्पाद ( अावश्यक वस्तुओं) पर तथा २/५ भाग II ख के उत्पाद ( विलास वस्तुओं) पर खर्च करते हैं, इसलिए क के वेशी मूल्य के ३/५ भाग अथवा २४० की खपत स्वयं उपविभाग I क में होती है। इसी तरह ख के वेशी. मूल्य का २/५ भाग ( विलास वस्तुओं के रूप में उत्पादित और विद्यमान ) उपविभाग II ख में खपता है। II क और II ख के बीच विनिमय के लिए रह जाता है : II क की ओर : १६०वे ; II ख की ओर : १००+६०। ये दोनों एक दूसरे को निरसित कर देते हैं। II ख के मजदूर द्रव्य मजदूरी के रूप में जो १०० पाते हैं, उनसे वे II क से उसी राशि की जीवन आवश्यक वस्तुएं खरीदते हैं। इसी प्रकार II ख के पूंजीपति II क से अपने वेशी मूल्य की ३/५ राशि अथवा ६०वे की जीवनावश्यक वस्तुएं खरीदते हैं। इस तरह II क के पूंजीपति- यों को, जैसा कि ऊपर माना गया था, II ख द्वारा उत्पादित विलास वस्तुओं ( II ख के पूंजीपतियों के हाथ में उनके द्वारा अदा की गयी मजदूरी का प्रतिस्थापन करनेवाले उत्पाद के में १०० और ६०) में निवेशित करने के लिए आवश्यक धन , अपने वेशी मूल्य का ३/५ अथवा १६०वे प्राप्त हो जाता है। अतः यह सारणी इस प्रकार है : ३) II क [४००६]+ [२४०३+ १६°वे १००+६०+ [४०], कोष्ठकबद्ध मदें केवल अपने उपविभाग में परिचालित और उपभुक्त हो रही हैं। परिवर्ती पूंजी में पेशगी दी गयी द्रव्य पूंजी का प्रत्यक्ष पश्चप्रवाह , जो केवल जीवना- वश्यक वस्तुओं का उत्पादन करनेवाले क्षेत्र II क के पूंजीपति के मामले में ही होता है, पहले वताये इस सामान्य नियम की विशेप परिस्थितियों द्वारा प्रापरिवर्तित अभिव्यक्ति मान है कि मालों के उत्पादकों द्वारा परिचलन के लिए पेशगी लगाया गया धन माल परिचलन के सामान्य दौर में उनके पास लौट आता है। प्रसंगवश , इससे यह नतीजा भी निकलता है कि मालों के उत्पादक की पीठ पर अगर कोई द्रव्य पूंजीपति हो और प्रौद्योगिक पूंजीपति को द्रव्य पूंजी ( शब्द के यथार्थतम अर्थ में, अर्थात द्रव्य रूप में पूंजी मूल्य ) पेशगी दे, तो इस द्रव्य के पश्चप्रवाह का वास्तविक स्थल द्रव्य पूंजीपति का जेव ही है। इस प्रकार प्रचल द्रव्य का अधिकांश द्रव्य पूंजी के उस क्षेत्न की होता है, जो बैंकों, आदि के रूप में संगठित और संकेंद्रित है, रूप ख