पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३७०

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साधारण पुनरुत्पादन वह उससे छुटकारा पा लेता है, धन सभी नाशवान चीजों की तरह जाता रहता है। वह उसके पास तभी लोटकर पा सकता है कि जब वह उसे मालों के बदले , अर्थात अपनी माल पूंजी के बदले परिचलन से बाहर खींचे। जहां तक उसका संबंध है, जैसे. उसके कुल वार्पिक उत्पाद ( उसकी माल पूंजी) का, वैसे ही उसके प्रत्येक तत्व का मूल्य , अर्थात प्रत्येक पृथक माल का मूल्य स्थिर पूंजी मूल्य , परिवर्ती पूंजी मूल्य तथा वेशी मूल्य में विभाज्य होता है। फलतः प्रत्येक पृथक माल (पण्य उत्पाद के संघटक तत्वों के रूप में ) का द्रव्य में परिवर्तन साथ ही सारे पण्य उत्पाद में समाहित वेशी मूल्य के एक अंश का भी द्रव्य में परिवर्तन होता है। इसलिए इस प्रसंग में यह वात शब्दशः सही है कि पूंजीपति ने स्वयं परिचलन में वह द्रव्य डाला था, जब उसने उसे अपनी उपभोग वस्तुओं पर खर्च किया था जिसके द्वारा उसका वेशी मूल्य द्रव्य में परिवर्तित होता है अथवा उसका सिद्धिकरण होता है। बेशक : सवाल यहां विल्कुल एक जैसे सिक्कों का नहीं, वरन ऐसी नक़द रक़म का है, जो उस रक़म के (या उसके एक हिस्से के ) वरावर हो, जिसे उसने अपनी व्यक्तिगत ज़रूरतें पूरी करने के लिए परिचलन में डाला था। व्यवहार में यह दो तरह से होता है : यदि व्यवसाय अभी हाल ही में , चालू वर्ष में शुरू किया गया है, तो इसके पहले कि पूंजीपति अपने व्यवसाय की प्राप्तियों के किसी भी अंश का अपने निजी उपभोग के लिए उपयोग कर सके., इसमें ख़ासा समय कम से कम कुछ- महीने लग जायेगा। लेकिन इसके वावजूद वह अपना उपभोग पल भर को भी स्थगितः नहीं करता। वह अपने द्वारा भविष्य में हथियाये जानेवाले वेशी मूल्य की प्रत्याशा में अपने को द्रव्य पेशगी देता है ( यह महत्वहीन है कि अपने जेब से या उधार के जरिये किसी और के जेव से ); किंतु ऐसा करते हुए वह वाद में सिद्धिकृत किये जानेवाले बेशी मूल्य के सिद्धिकरण का माध्यम भी पेशगी देता है। यदि इसके. विपरीत उसका व्यवसाय अधिक समय तक. वाक़ायदा चलता रहा है, तो अदायगियां और प्राप्तियां पूरे साल की अलग-अलग मीयादों में फैली होती हैं। किंतु एक चीज़ अटूट क्रम से चलती रहती है और वह है पूंजीपति का. उपभोग , जो प्रचलित अथवा प्राक्कलित आय की प्रत्याशा करता है और जिसके परिमाण का उसके एक निश्चित अंश के आधार पर अभिकलन किया जाता है। मालों के प्रत्येक अंश के बेचे जाने के साथ ही वर्ष भर में उत्पादित होनेवाले वेशी मूल्य के एक अंश का भी सिद्धिकरण होता है। लेकिन यदि सारे साल में केवल इतना ही उत्पादित माल विकता है, जितना उनमें समाहित स्थिर और परिवर्ती पूंजी मूल्यों के प्रतिस्थापन के लिए दरकार है अथवा यदि क़ीमतें इतना गिर जायें कि समस्त वार्षिक माल उत्पाद की विक्री से केवल उसमें समाहित पेशगी पूंजी मूल्य का ही सिद्धिकरण हो सके, तब भावी मूल्य की प्राशा में द्रव्य के व्यय का प्रत्याशी स्वरूप प्रकट हो जायेगा। यदि हमारा पूंजीपति दिवालिया हो जाता है, तो उसके लेनदार और न्यायालय इसकी जांच करेंगे कि उसका प्रत्याशित निजी खर्च उसके व्यवसाय के परिमाण के और उस व्यवसाय के ग्राम तौर से या सामान्यतः अनुरूप वेशी मूल्य की प्राप्ति के उचित अनुपात में था या नहीं। जहां तक समूचे पूंजीपति वर्ग का संबंध है, यह प्रस्थापना कि वह स्वयं अपने वेशी. मूल्य के सिद्धिकरण के लिए (तदनुरूप अपनी स्थिर और परिवर्ती पूंजी के परिचलन के लिए भी) आवश्यक द्रव्य परिचलन में डालेगा, न केवल विरोधाभासी प्रतीत नहीं होती, वल्कि वह समूचे तंत्र की अनिवार्य शर्त के रूप में सामने आती है। कारण यह कि यहां केवल दो वर्ग हैं : + 3--1180