पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३९५

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कुल सामाजिक पूंजी का पुनरुत्पादन तथा परिचलन फिर थोड़ी-थोड़ी मात्रा में द्रव्य के व्यय का, छोटी-छोटी उत्पादक पूर्तियों का तेज़ सिलसिला प्राता है। इससे स्वयं स्थिति नहीं बदल जाती। यही बात श्रम शक्ति पर भी लागू होती है। जहां उत्पादन साल भर लगातार एक ही पैमाने पर चालू रहता है, वहां नई श्रम शक्ति द्वारा उपमुक्त श्रम शक्ति का निरंतर प्रतिस्थापन होता है। जहां काम मौसमी होता है अथवा भिन्न- भिन्न अवधियों में भ्रम की भिन्न-भिन्न मात्रा का प्रयोग होता है, जैसे खेती में, वहां श्रम शक्ति की अनुरूप ख़रीद भी कभी थोड़ी, तो कभी ज्यादा मात्रा में होती है। किंतु मालों की बिक्री से द्रव्य की प्राप्तियां, जहां तक वे उस माल मूल्य के हिस्से को द्रव्य में बदलती हैं, जो स्थायी पूंजी की छीजन के बराबर होता है, वे जिस उत्पादक पूंजी के मूल्य ह्रास की पूर्ति करती हैं, उसके संघटक अंश में पुनःपरिवर्तित नहीं होतीं। वे उत्पादक पूंजी के साथ स्थिर हो जाती और द्रव्य के रूप में बनी रहती हैं। द्रव्य का यह अवक्षेपण तव तक वार-वार होता रहता है, जब तक न्यूनाधिक वर्षों की पुनरुत्पादन अवधि बीत नहीं जाती , जिसके दौरान स्थिर पूंजी का स्थायी तत्व उत्पादन प्रक्रिया में अपने पुराने दैहिक रूप में कार्य करता रहता है। जैसे ही स्थायी तत्व , जैसे कि इमारतें, मशीनें, वगैरह छीज जाता है और उत्पादन प्रक्रिया में आगे कार्य नहीं कर सकता, उसका मूल्य द्रव्य द्वारा, द्रव्य अवक्षेपणों की समष्टि - स्थायी पूंजी से उन मालों को, जिनके उत्पादन में उसने भाग लिया था और जिसने इन मालों की विक्री के फलस्वरूप द्रव्य रूप धारण किया था, शनैः-शनैः अंतरित मूल्यों- द्वारा पूर्णतः प्रतिस्थापित होकर उसके साथ आ जाता है। यह द्रव्य स्थायी पूंजी को (अथवा उसके तत्वों को, चूंकि उसके विभिन्न तत्वों का टिकाऊपन अलग-अलग होता है ) वस्तुरूप में प्रतिस्थापित करने का और इस प्रकार उत्पादक पूंजी के इस संघटक अंश का वस्तुतः नवीकरण करने का काम करता है। अतः यह द्रव्य स्थिर पूंजी मूल्य के एक अंश का, यानी उसके स्थायी अंश का द्रव्य रूप है। इस प्रकार इस अपसंचय का निर्माण स्वयं पुनरुत्पादन की पूंजीवादी प्रक्रिया का एक तत्व है; यह स्थायी पूंजी के मूल्य अथवा उसके विभिन्न तत्वों का- द्रव्य रूप में - तव तक पुनरुत्पादन और संग्रहण है कि जब तक स्थायी पूंजी का जीवन काल समाप्त नहीं हो जाता और फलतः वह अपना पूरा मूल्य उत्पादित मालों को नहीं प्रदान कर देती और जब उसका वस्तुरूप में प्रतिस्थापन जरूरी नहीं हो जाता है। किंतु यह द्रव्य स्थायी पूंजी के निःशेष तत्वों के प्रतिस्थापन के लिए नये तत्वों में पुनःपरिवर्तित होते ही अपना अपसंचय का रूप ही त्यागता है और इसलिए परिचलन द्वारा जनित पूंजी की पुनरुत्पादन प्रक्रिया में अपना क्रियाकलाप फिर शुरू कर देता है। जैसे साधारण माल परिचलन किसी प्रकार भी उत्पाद के कोरे विनिमय के सर्वरूप नहीं है, वैसे ही वार्पिक माल उत्पाद का परिवर्तन अपने को किसी प्रकार भी अपने विविध घटकों के परस्पर माध्यमहीन विनिमय मात्र में वियोजित नहीं कर सकता। इसमें द्रव्य की एक विशिष्ट भूमिका होती है, जो विशेषतः स्थायी पूंजी मूल्य के पुनरुत्पादन के ढंग में प्रकट होती है। ( यदि उत्पादन सामूहिक हो जाये और उसका माल उत्पादनवाला रूप न रह जाये, तो सारी वात कितनी बदली हुई दिखाई देगी, इसे हम आगे चलकर विश्लेपण के लिए छोड़ देते हैं। ) अव यदि हम अपनी मूल सारणी. पर लौट पायें, तो वर्ग II के लिए यह हमारे सामने प्रायेगा : २,०००+५००+५००३ । उस हालत में साल में उत्पादित सभी उपभोग वस्तुएं मूल्य में ३,००० के बरावर हैं.; और मालों की कुल राशि में विभिन्न माल तत्वों में से प्रत्येक , जहां तक उसके मूल्य का संबंध है, २/३स+ १/६५+ १/६वे अथवा प्रतिशत में ६६२/३स+