पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४०२

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साधारण पुनरुत्पादन ४०१ घेसी पहुंचता है। उसका प्रवाह न्यूनाधिक निलंवित हो सकता है और इसलिए पूंजीपति को नये मुद्रा रिज़र्व की ज़रूरत पड़ सकती है। यह सब इस बुनियादी स्वरूप में विचार का विपय नहीं है। ख) हमने माना था कि कभी II से खरीदारी करने के लिए I द्रव्य रूप में ४०० पाउंड और पेशगी देता है। और यह द्रव्य उसके पास लौट आता है, जब कि II कभी I से ख़रीदारी के लिए ४०० पाउंड पेशगी देता है और यह द्रव्य वैसे ही वापस आ जाता है। यह कल्पना करनी ही होती है, क्योंकि इसके विपरीत यह मान लेना बेकायदा होगा कि I अथवा II के पूंजीपति अपने मालों के विनिमय के लिए आवश्यक द्रव्य एकपक्षीय ढंग से परिचलन में पेशगी दे देंगे। चूंकि हम उपशीर्षक १) के अंतर्गत दिखा चुके हैं कि इस प्राक्कल्पना को वेतुकी मानकर ठुकरा देना चाहिए कि २०० स (छ) को द्रव्य में परिवर्तित करने के लिए I परिचलन में अतिरिक्त द्रव्य डालेगा, इसलिए ऐसा प्रतीत होगा कि जो एकमात्र प्राक्कल्पना शेष है, वह और भी ज़्यादा वेतुकी है कि II स्वयं परिचलन में वह द्रव्य डाल रहा था, जिससे उसके मालों के मूल्य का वह संघटक अंश द्रव्य में बदल जाता है, जिसे उसकी स्थायी पूंजी की छीजन की क्षतिपूर्ति करनी होती है। उदाहरण के लिए, उत्पादन प्रक्रिया में श्री क की कताई मशीन द्वारा जो मूल्यांश गंवाया जाता है, वह सूत के मूल्यांश के रूप में पुनः प्रकट हो जाता है। एक ओर उनकी कताई मशीन के मूल्य में जो क्षति होती है, यानी छीजन में, वह दूसरी ओर उनके हाथ में द्रव्य के रूप में संचित हो जायेगा। अब मान लीजिये कि क २०० पाउंड की कपास ख से ख़रीदते हैं और इस तरह द्रव्य रूप में २०० पाउंड परिचलन में पेशगी देते हैं। फिर ख उनसे २०० पाउंड का सूत ख़रीदते हैं और ये २०० पाउंड अव क के पास अपनी मशीन की छीजन की क्षतिपूर्ति करने की निधि का काम देते हैं। सारी वात का निचोड़ वस यह होगा कि अपने उत्पादन , उसके उत्पाद और इस उत्पादः की विक्री के अलावा क in petto २०० पाउंड रखते हैं, जिससे कि अपनी कताई मशीन के मूल्य ह्रास की क्षतिपूर्ति अपने तई कर सकें , अर्थात अपनी मशीन के मूल्य ह्रास के कारण २०० पाउंड खोने के अलावा उन्हें हर साल २०० पाउंड द्रव्य रूप में अपनी ही गांठ से उठा रखने भी होंगे, जिससे कि आखिरकार वह नई कताई मशीन ख़रीद सकें। किंतु यह वेतुकापन आभास मान है। II में वे पूंजीपति हैं, जिनकी स्थायी पूंजी अपने पुनरुत्पादन की अत्यधिक भिन्न-भिन्न मंज़िलों में है। इनमें से कुछ पूंजीपतियों के पास वह उस मंज़िल में पहुंच गयी है, जहां उसका वस्तुरूप में पूर्ण प्रतिस्थापन आवश्यक हो गया है। अन्य पूंजीपतियों के यहां वह इस मंज़िल से न्यूनाधिक दूर है। अंतोक्त समूह के सभी सदस्यों में यह बात सामान्य है कि उनकी स्थायी पूंजी वस्तुतः पुनरुत्पादित नहीं होती, अर्थात उसी प्रकार के नये नमूनों के ज़रिये in natura नवीकृत नहीं होती, वरन उसका मूल्य · द्रव्य रूप में उत्तरोत्तर संचित होता रहता है। पहला समूह विल्कुल उसी स्थिति में है (या लगभग उसी स्थिति में है , यह यहां महत्वहीन है), जिसमें व्यवसाय शुरू करने के समय वह था, जब वह अपनी द्रव्य पूंजी लेकर बाजार में इसलिए आया था कि उसे एक ओर स्थिर (स्थायी तथा प्रचल ) पूंजी में, और दूसरी ओर श्रम शक्ति में, परिवर्ती पूंजी में परिवर्तित करे। इन पूंजीपतियों को इस मुद्रा पूंजी को, अर्थात स्थिर स्थायी पूंजी के मूल्य और प्रचल तथा परिवर्ती पूंजी के मूल्य दोनों ही को फिर परिचलन में पेशगी देना होता है। . । . 20-1190