पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

फुन्न सामाजिक पूंजी का पुनरुत्पादन तथा परिचलन गंघटन गंगों की मात्रा पट जायेगी। अतः या तो I के समुचित उत्पादन में कमी आयेगी या किर वेगी होगी (जसे कि पहले न्यूनता हुई थी ) और यह वेशी द्रव्य में परिवर्तनीय न होगी। यह मत्र है कि प्रथम प्रसंग में वही श्रम अधिक उत्पादिता , विस्तार अथवा सघनता द्वारा अधिक उत्पाद दे सकता है और उस हालत में न्यूनता को इस प्रकार पूरा किया जा सकता है। किंतु ऐमा परिवर्तन पूंजी और श्रम के I के उत्पादन की एक शाखा से दूसरी में स्थानांतरण के बिना नहीं हो सकता , और ऐसा हर स्थानांतरण तात्कालिक व्यवधान पैदा करेगा। इसके अलावा (जिम हद तक श्रम के विस्तार और उसकी सघनता में वृद्धि होगी), I को विनिमय में ] के कम मूल्य के लिए अपना अधिक मूल्य देना होगा। अतः I के उत्पाद में मूल्य ह्रास होगा। ज्यादा, द्वितीय प्रसंग में इसका उलटा होगा, जहां I को अपना उत्पादन सीमित करना होगा, जिसका मतलब है उसके मजदूरों और पूंजीपतियों के लिए संकट अथवा वह वेशी पैदा करेगा, जिमका फिर वही मतलब है-संकट। इस तरह की वेणी अपने आप में कोई अनिष्ट नहीं है, वरन लाभकारी ही है, किंतु पूंजीवादी उत्पादन के अंतर्गत वह अनिष्ट ही है। दोनों ही प्रसंगों में विदेश व्यापार सहायक हो सकता है : पहले प्रसंग में , द्रव्य रूप में जमा माल 1 को उपभोग वस्तुओं में बदलने के लिए और द्वितीय प्रसंग में वेशी माल राशि का निपटान करने में। किंतु चूंकि विदेश व्यापार किन्हीं तत्वों का ( मूल्य के संदर्भ में भी) प्रतिस्थापन मान नहीं करता, इसलिए वह अंतर्विरोधों को केवल और बड़े दायरे में स्थानांतरित कर देता है और उन्हें अधिक व्यप्ति प्रदान करता है। पुनरुत्पादन के पूंजीवादी स्वरूप का उन्मूलन करने के साथ प्रश्न केवल स्थायी पूंजी ( वह पूंजी, जो हमारे उदाहरण में उपभोग वस्तुओं के उत्पादन में कार्य करती है ) के समाप्त होते - समाप्त होते , अतः वस्तुरूप में पुनरुत्पादित किये जानेवाले - अंश के विभिन्न क्रमागत वर्षों में बदलते परिमाण का रह जाता है। किसी एक साल वह बहुत बड़ा हो (औसत नश्वरता से जैसा कि पादमियों के साथ होता है), तब वह अगले साल अवश्य ही उतना ही छोटा होगा। फलस्वरूप उपभोग वस्तुओं के वार्पिक उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल , अघतैयार उत्पाद और सहायक सामग्री की मात्रा नहीं घटती, वशर्ते कि और सब बातें यथावत रहें। अतः उत्पादन साधनों के समुच्चित उत्पादन को एक प्रसंग में बढ़ना और दूसरे में घटना ही होगा। इसका केवल निरंतर सापेक्ष अत्युत्पादन द्वारा ही प्रतिकार किया जा सकता है। एक अोर स्थायी पूंजी की प्रत्यक्ष अावश्यकता से अधिक उत्पादित एक निश्चित मात्रा होनी चाहिए ; दूसरी ओर विशेप रूप से कच्चे माल वगैरह की वर्ष भर की प्रत्यक्ष आवश्यकता से आधिक्य में पूर्ति होनी चाहिए ( यह बात निर्वाह साधनों पर ख़ास तौर से लागू होती है)। इस तरह के प्रत्युत्पादन का मतलब है समाज द्वारा स्वयं अपने पुनरुत्पादन के भौतिक साधनों पर उसका नियंत्रण। किंतु पूंजीवादी समाज में ऐसा अत्युत्पादन अव्यवस्था का तत्व होता है। पुनरुत्पादन के अपरिवर्तित पैमाने के आधार पर स्थायी पूंजी का यह उदाहरण विलक्षण है। स्थायी और प्रबल पूंजी के उत्पादन में अनुपात की विषमता संकटों की कैफ़ियत देने के लिए अर्थशास्त्रियों का एक प्रिय तक है। उनके लिए यह बात नई है कि अनुपात की यह विषमता तब भी पैदा हो सकती है और होती है कि जब स्थायी पूंजी केवल परिरक्षित रखी जाती है और ऐसा पहले से कार्यशील सामाजिक पूंजी के साधारण पुनरुत्पादन के आधार पर प्रादगं सामान्य उत्पादन की कल्पना पर भी हो सकता है और होता है। ,