पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४२४

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साधारण पुनरुत्पादन ४२३ यदि पूंजीपति वर्ग मजदूरों को ८० पाउंड देता है, तो उसे इन ८० पाउंड के बदले उन्हें ८० पाउंड का माल भी देना होगा और ८० पाउंड का पश्चप्रवाह उसे अधिक धनी नहीं बनाता। यदि वह उन्हें द्रव्य रूप में १०० पाउंड देता है और उन्हें ८० पाउंड का माल १०० पाउंड में वेचता है, तो वह उनकी सामान्य मजदूरी से उन्हें द्रव्य रूप में २५ % अधिक देता है, और बदले में उन्हें २५% कम माल देता है। दूसरे शब्दों में, जिस निधि से पूंजीपति वर्ग सामान्यतः अपना लाभ प्राप्त करता है, वह फ़र्जी तौर पर श्रम शक्ति के लिए उसके मूल्य से कम , अर्थात उजरती मजदूरों के नाते उनके सामान्य पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक निर्वाह साधनों के मूल्य से कम अदायगी करके सामान्य मजदूरी कटौतियों से वनी होती है। इसलिए यदि सामान्य मजदूरी दी जाती है, और देस्तु के अनुसार ऐसा होता ही है - तो न तो प्रौद्योगिक पूंजीपतियों के लिए और न निष्क्रिय पूंजीपतियों के लिए ही कोई लाभ निधि हो सकती है। इसलिए देस्तु को इस सारे रहस्य को कि पूंजीपति वर्ग कैसे धनी बनता है, यों प्रकट करना चाहिए था : मजदूरी में कटौती करके। उस हालत में जिन अन्य बेशी मूल्य निधियों का वह १ तथा ३ के अंतर्गत उल्लेख करते हैं, उनका कहीं अस्तित्व न होगा। इसलिए जिन देशों में भी मजदूरों की नक़द मजदूरी वर्ग रूप में उनके निर्वाह के लिए आवश्यक उपभोग वस्तुओं के मूल्य में परिवर्तित कर दी जायेगी, उन सभी देशों में पूंजीपतियों के लिए न कोई उपभोग निधि और न कोई संचय निधि होगी और इसलिए पूंजीपति वर्ग के लिए कोई अस्तित्व निधि भी न होगी और इसलिए पूंजीपति वर्ग भी न होगा। और देस्तु के अनुसार प्राचीन सभ्यतावाले सभी समृद्ध और विकसित देशों में ऐसा ही होना चाहिए भी, क्योंकि उनमें, “हमारे प्राचीन समाजों में, उजरती मजदूरों की भरण-पोषण निधि ... लगभग स्थिर परिमाण की होती है" ( पृष्ठ २०२)। मजदूरी से कटौतियों से भी पूंजीपति इस तरह धनी नहीं बन जाता कि पहले मजदूर को १०० पाउंड द्रव्य रूप में दे और फिर इन १०० पाउंड के बदले उसे ८० पाउंड का माल दे और इस तरह दरअसल १०० पाउंड के द्वारा ८० पाउंड का, २५% अधिक का माल परिचालित करे। पूंजीपति वेशी मूल्य उत्पाद के उस अंश , जिसमें वेशी मूल्य प्रकट होता है, के अलावा उत्पाद के उस २५ प्रतिशत अंश को भी, जो मजदूर को मजदूरी के रूप में मिलना चाहिए, हथिया करके धनी बनता है। देस्तु द्वारा कल्पित मूर्खतापूर्ण तरीके से पूंजीपति वर्ग को कोई लाभ नहीं होगा। वह मजदूरी के १०० पाउंड देता है और इन १०० पाउंड के बदले मजदूर को ८० पाउंड का उसी का उत्पाद वापस कर देता है। किंतु अगले लेन-देन में उसे उसी प्रक्रिया के लिए फिर १०० पाउंड पेशगी देने होंगे। इस तरह वह एक वेकार का खेल खेलेगा कि द्रव्य रूप में १०० पाउंड पेशगी दे और बदले में ८० पाउंड का माल दे, वजाय इसके कि द्रव्य रूप में ८० पाउंड पेशगी दे और उनके बदले में ८० पाउंड का माल दे। अर्थात वह अपनी परिवर्ती पूंजी के परिचलन के लिए आवश्यक मुद्रा पूंजी से २५ % अधिक निरंतर निष्प्रयोजन पेशगी देता रहेगा, जो धनी वनने का बड़ा विचित्र तरीका है। ३) अंतिम वात , पूंजीपति वेचते हैं “निष्क्रिय पूंजीपतियों को, जो उनकी अदायगी अपनी आय के उस अंश से करते हैं, जो उन्होंने अभी अपने द्वारा प्रत्यक्षतः नियोजित उजरती मजदूरों को नहीं दिया है ; परिणामस्वरूप वे उन्हें प्रति वर्ष जो किराया देते हैं, वह सारा का सारा किसी न किसी तरह उनके पास लौट आता है।" .