पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४२७

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गत गामाजिक पूंजी का पुनरत्वादन तथा परिचलन . . . गः या बाया फिर भी रह जाता है। जोड़ का कभी इंदराज नहीं, हमेशा वाली ही बासी। निन्दिर पंजीपतियों की ठगाई ने प्रौद्योगिक पूंजीपतियों का घाटा तो कम कर दिया, लेकिन हम सबने उनकी संपदा के हाल को समृद्धीकरण के साधन में नहीं बदल दिया ।। लेपिन यह तरलोब अनिश्चित काल तक काम आती रहे, यह नहीं हो सकता , क्योंकि निधि पंजीति अगर नाल दर साल द्रव्य रूप में केवल १०० पाउंड प्राप्त करते हैं, तो उनके लिए माल दर साल द्रव्य रूप में १२० पाउंड देते रहना संभव नहीं होगा। प्रम दुसरा तरीका रह जाता है : प्रौद्योगिक पूंजीपति निष्क्रिय पूंजीपतियों को द्रव्य रूप में दिये १०० पाउंट के बदले २० पाउंड का माल बेचते हैं। इस हालत में पहले की ही तरह किराये, सूद, वरह के रूप में वे अब भी ८० पाउंड मुफ्त में दे देते हैं। इस धोखाधड़ी के जरिये प्रौद्योगिक पूंजीपतियों ने निप्पियों को दिये जानेवाले अपने खिराज को कम तो कर लिया है, फिर भी वह बना हुआ तो है ही, और निनिय लोग इस स्थिति में होते हैं- यह प्रोपित करनेवाले उनी सिद्धांत के अनुसार कि कीमतें विक्रेताओं के सुनाम पर निर्भर करती हैं - कि भविष्य में अपनी जमीन और पूंजी के किराये , मूद , वगैरह के तौर पर पहले के १०० पाउंड के बदले १२० पाउंड की मांग करें। यह चमत्कारी विश्लपण उम गंभीर विचारक के सर्वथा योग्य है, जो एक अोर ऐडम स्मिय की यह नकल करता है कि "श्रम सारी संपदा का स्रोत है" (पृष्ठ २४२), और यह कि ग्रौद्योगिक पूंजीपति “अपनी पूंजी उस श्रम के भुगतान में लगाते हैं, जो मुनाफ़े सहित उसका पुनन्यादन करता है" (पृष्ठ २४६ ), और दूसरी ओर, जो यह निष्कर्ष निकालता है कि ये प्रौद्योगिक पूंजीपति "अन्य सभी लोगों का भरण-पोषण करते हैं और एकमात्र ऐसे लोग हैं, जो सार्वजनिक संपदा की वृद्धि करते हैं और हमारे सभी उपभोग साधनों का सृजन करते हैं" (पृष्ठ २४२ ), और यह कि पूंजीपतियों का भरण-पोपण मजदूर नहीं करते, वरन मजदूरों का भरण-पोषण पूंजीपति करते हैं, इस विलक्षण कारण से कि मजदूरों को जो धन दिया जाता है, वह उनके हाथ में नहीं रह पाता, वरन मजदूरों द्वारा ही उत्पादित मालों की अदावी में पूंजीपतियों के पास निरंतर लौटता रहता है। "वे वस यही करते हैं कि इस हाय से दिया और उस हाय से वापस लिया। इसलिए उनके उपभोग को उन्हें काम पर लेनेवालों द्वारा ही जनित माना जाना चाहिए (पृष्ठ २३५)। सामाजिक पुनरुत्पादन और उपभोग के इस सुविस्तृत विश्लेषण के बाद कि वे द्रव्य परिचलन में कैसे सम्पन्न होते हैं, देन्तु आगे कहते हैं : “ यही वह चीज़ है, जो संपदा की इस perpetuurn mobile [सतत गतिशीलता] को पूर्ण बनाती है , जिस गति को ठीक से न समझे जाने पर भी" (mal connu, मैं भी यही कहूंगा! ) "उचित ही परिचलन का नाम दिया गया है। कारण यह कि सचमुच यह एक परिपथ है और सदा अपने प्रस्थान विंदु पर लोट पाता है। इसी बिंदु पर उत्पादन की निप्पत्ति होती है" (पृष्ठ २३६ और २४०) । अति लब्धप्रतिष्ठ लेखक देस्तु , फ्रांसीसी संस्थान और फिलाडेलफ़िया दार्गनिक समाज के मदस्य, और वस्तुतः एक हद तक अनगड़ अर्थशास्त्रियों के बीच एक नक्षत्र , देस्तु अपने पाठकों से अंत में अनुरोध करते हैं कि जिस आश्चर्यजनक स्पष्टता से उन्होंने सामाजिक प्रक्रिया का विवेचन प्रस्तुत किया है, विषय पर उन्होंने जो प्रकाश पुंज डाला है, उसकी वे प्रशंसा करें, और बड़ी अनुकंपा करके यह पाठकों को भी बता देते हैं कि इस सारे प्रकाश का स्रोत यहां है। इसे मूल में ही पढ़ना उचित है : “On remarquera, jespére, combien cette "