पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४३१

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कुन सामाजिक पूंजी का पुनरुत्पादन तथा परिचलन मानों को याद में गरीदारी किये बिना बेचने से परिचलन से द्रव्य निकल पाता है और सनर में जमा होता है। अत: यदि इस क्रिया को नामान्य प्रक्रिया माना जाये, तो मापोली बनी रहती है कि ग्राहक कहां से पायेंगे, क्योंकि इस प्रक्रिया में अपसंचय के निमित्त बचना तो दर गो. नाहेगा, पर खरीदना कोई नहीं चाहेगा। और इस बात को सामान्य रूप में मानना होगा, क्योंकि प्रत्येक वैयक्तिक पंजी संचित होने की प्रक्रिया हो सकती है। यदि हम वार्षिक पुनस्टादन के विभिन्न भागों के बीच परिचलन प्रक्रिया के सरल रेखा में होने की कल्पना करें,- पोर यह गलत होगा, क्योंकि कुछ अपवाद छोड़कर, उसमें सदा परस्पर विरोधी गतियां होती हैं - तो हमें शुरुयात मोने ( या चांदी ) के उत्पादक से करनी होगी, जो गरीदता है, पर बेचता नहीं है और यह मानना होगा कि और सब लोग उसी के हाथ विक्री करते हैं। उस स्थिति में वर्ष का सारा सामाजिक वेशी उत्पाद (सारे वेशी मूल्य का वाहक ) उसके हाथों में पा जायेगा, और अन्य मभी पूंजीपति उसका बेशी उत्पाद प्रापस में pro rata बांट लेंगे, जो कुदरती तौर पर द्रव्य रूप में , उसके वेशी मूल्य के स्वर्ण में मूर्त कप में है। कारण यह कि स्वर्ण उत्पादक के उत्पाद के जिस अंश से उसकी क्रियाशील पूंजी की क्षतिपूर्ति होनी है , वह पहले ही बंधा हुआ है और निपटाया जा चुका है। तब स्वर्ण उत्पादक का सोने के रूप में सृजित वेशी मूल्य वह एकमात्र निधि होगा, जिससे अन्य सभी पूंजीपति अपने वार्षिक वेशी उत्पाद को द्रव्य में परिवर्तित करने की सामग्री प्राप्त करेंगे। तब उसके मूल्य के परिमाण को समाज के समस्त वार्पिक वेशी मूल्य के बरावर होना होगा, जिसे पहले अपसंचय का रूप ग्रहण करना होगा। ये सब कल्पनाएं जितनी भी वेतुकी हो, इसके अलावा और कोई काम नहीं करेंगी कि अपसंचय के सहकालिक और सार्विक निर्माण की संभावना की व्याख्या करें और स्वर्ण उत्पादक द्वारा पुनरुत्पादन के अलावा वे उसे एक क़दम भी आगे न ले जा सकेंगी। इम प्रतीयमान कठिनाई का समाधान करने से पहले हमें क्षेत्र I ( उत्पादन साधनों का उत्पादन ) में संचय और क्षेत्र II ( उपभोग वस्तुओं का उत्पादन ) में संचय के बीच भेद करना होगा। हम शुरूयात क्षेत्र I से करेंगे। १. क्षेत्र 1 में संचय १) अपसंचय का निर्माण यह स्पष्ट है कि वर्ग I की अंगभूत उद्योग की नाना शाखाओं में पूंजी निवेश और उद्योग की इन शाखागों में से प्रत्येक में पूंजी के विभिन्न अलग-अलग निवेश अपने परिमाणों, प्राविधिक अवस्थानों, बाजार की परिस्थितियों, आदि के अलावा अपनी आयु , अर्थात अब तक कार्यशील रह चुकने के समय के अनुसार बेशी मूल्य से संभाव्य मुद्रा पूंजी में क्रमिक रूपांतरण की विभिन्न मंजिलों में होते हैं, चाहे इस मुद्रा पूंजी को क्रियाशील पूंजी के प्रसार के काम आना हो, चाहे नये प्रौद्योगिक व्यवसाय कायम करने के , जो उत्पादन के प्रसार के दो रूप हैं। पूंजीपतियों का एक हिस्सा अपनी संभाव्य मुद्रा पूंजी को, जो बढ़कर समुचित प्रकार की हो चुकी होती है, निरंतर उत्पादक पूंजी में परिवर्तित करता रहता है, अर्थात वे वेशी मूल्य के द्रव्य में परिवर्तन से अपसंचित द्रव्य से उत्पादन साधन , स्थिर पूंजी के अतिरिक्त तत्व ख़रीदते .