पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४३३

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गुल सामाजिक पूंजी का पुनरुत्पादन तथा परिचलन यहां गबने पहले यह बात मन में बिठा लेनी चाहिए कि यद्यपि क अपने वेशी मूल्य की राशि के बराबर द्रव्य परिचलन से निकालता और उसका अपसंचय करता है, पर दूसरी पोर वह बदले में अन्य माल निकाले बिना परिचलन में माल डालता है। इससे ख , ख', ख", इत्यादि परिचलन में द्रव्य डाल पाते हैं और उनमें से केवल माल निकालने की स्थिति में होते हैं। प्रस्तुत प्रसंग में यह माल अपने दैहिक रूप और अपने गंतव्य के अनुसार ख , ख', इत्यादि की डियर पूंजी में स्थायी या प्रचल तत्व की तरह प्रवेश करता है। हम शीघ्र ही इसके बारे में पोर वानें भी गुनेंगे, जब हम वेशी उत्पाद के ग्राहक, ख, ख', इत्यादि की चर्चा करेंगे। प्रगंगवश हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि जैसा कि हमने साधारण पुनरुत्पादन के प्रसंग में देखा था, यहां हम फिर देखते हैं कि वार्षिक उत्पाद के विभिन्न संघटक अंशों का विनिमय , अर्थात उनका परिचलन (जिसमें साथ ही पूंजी का पुनरुत्पादन और वस्तुतः उसका उसकी विभिन्न संत्राओं - जैसे स्थिर, परिवर्ती, स्थायी, प्रचल , मुद्रा तथा माल पूंजी - में पुनरावर्तन समाविष्ट होगा) किसी भी प्रकार मालों के बाद में विक्रय से अनुपूरित मात्र क्रय की अथवा बाद में ऋय से अनुपूरित विक्रय की पूर्वकल्पना नहीं करता है, जिससे कि वास्तव में माल का माल में कोरा विनिमय होगा, जैसा कि राजनीतिक अर्थशास्त्र , और ख़ास तौर से प्रकृतितंत्रवादियों और ऐडम स्मिथ के जमाने से मुक्त व्यापारपंथ द्वारा माना जाता है। हम जानते हैं कि स्थायी पूंजी के लिए एक बार आवश्यक व्यय कर दिया जाने के बाद वह अपनी कार्यशीलता की समूची अवधि में प्रतिस्थापित नहीं होती, वरन अपने पुराने रूप में क्रियाशील बनी रहती है, जब कि उसका मूल्य द्रव्य के रूप में क्रमशः अवक्षेपित होता जाता है। हम देख चुके हैं कि स्थायी पूंजी IIA का नियतकालिक नवीकरण ( जिसमें समस्त पूंजी मूल्य स (प+ये ) मूल्य के तत्वों में परिवर्तित होता है ) एक ओर यह पूर्वापेक्षा करता है कि II के द्रव्य रूप से उसके दैहिक रूप में पुनःपरिवर्तित स्थायी अंश की मात्र खरीद की जाती है और वे की मात्र विक्री इसके अनुरूप होती है और दूसरी ओर यह पूर्वापेक्षा करता है कि IIस की ओर से मात्र विक्री होती है, द्रव्य में अवक्षेपित उसके मूल्य के स्थायी ( मूल्य ह्रास के ) भाग की विक्री होती है और I की खरीद मान इसके अनुरूप होती है। इस प्रसंग में विनिमय सामान्य गति से होता रहे, इसके लिए यह मानना होगा कि IIस की ओर से मात्र खरीद मूल्य परिमाण में IIस की ओर से मान विक्री के बरावर है और इसी तरह IIस, भाग १ को 11 की मात्र विक्री IIA, भाग २ से उसकी मात्र खरीद के वरावर है ( पृष्ठ ४०२-४०३)। अन्यथा साधारण पुनरुत्पादन में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है। यहां की मान ख़रीद का वहां की मान्न विक्री से प्रतिसंतुलन करना होगा। इसी प्रकार इस प्रसंग में यह भी मानना होगा कि वे के जिस भाग से क, क', क" के अपसंचयों का निर्माण होता है, उसकी मान विक्री I के उस अंश की मान ख़रीद से संतुलित होती है, जो ख , ख', ख" के अपसंचयों को अतिरिक्त उत्पादक पूंजी के तत्वों में परिवर्तित करता है। जहां तक यह संतुलन इस तथ्य से वहाल होता है कि ग्राहक आगे चलकर उतनी ही मूल्य राशि का विक्रेता बन जाता है और इसी प्रकार इसके विपरीत भी, वहां तक द्रव्य उस पक्ष .