पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४३८

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संचय तथा विस्तारित पैमाने पर पुनरुत्पादन ४३७ अलावा द्रव्य कहां से प्राता है ? हमें मालूम है कि ख, ख', ख", इत्यादि (I) ने बेशी उत्पाद को वेचकर अपने अपसंचय का निर्माण वैसे ही किया है जैसे क, क' इत्यादि ने। अव वे ऐसे मुक़ाम पर आ गये हैं, जहां उनकी अपसंचित , केवल आभासी द्रव्य पूंजी अतिरिक्त द्रव्य पूंजी की तरह प्रभावी ढंग से कार्य करेगी। किंतु यह सव कोल्हू के वैल की तरह चक्कर लगाना है। यह सवाल अब भी बना ही रहता है : वह द्रव्य कहां से आता है, जिसे पहले ख (I) ने परिचलन से निकाला था और संचित किया था? साधारण पुनरुत्पादन के विश्लेषण से हम जानते हैं कि अपने वेशी उत्पाद का विनिमय कर सकने के लिए I तथा II पूंजीपतियों के पास कुछ द्रव्य राशि उपलब्ध होनी चाहिए। उस स्थिति में जो द्रव्य केवल उपभोग वस्तुओं पर खर्च की जानेवाली आय का काम करता था, वह पूंजीपतियों के पास उसी मात्रा में लौट आया, जिस मात्रा में उन्होंने अपने-अपने मालों के विनिमय के लिए उसे पेशगी दिया था। यहां वही द्रव्य पुनः प्रकट हो जाता है, किंतु उसका कार्य भिन्न होता है। क और ख (1), एक दूसरे को बारी-बारी से बेशी उत्पाद को अतिरिक्त आभासी द्रव्य पूंजी में परिवर्तित करने के द्रव्य की पूर्ति करते हैं और नवनिर्मित द्रव्य पूंजी को बारी-बारी से क्रय माध्यम के रूप में परिचलन में वापस डालते हैं। इस प्रसंग में की गयी अकेली कल्पना यह है कि विचाराधीन देश में द्रव्य की राशि ( परि- चलन वेग, आदि स्थिर रहते हैं) सक्रिय परिचलन तथा आरक्षित निधि , दोनों के लिए पर्याप्त होगी। जैसा कि हम देख चुके हैं, यह वही कल्पना है, जो साधारण माल परिचलन के सिलसिले में करनी पड़ी थी। अलबत्ता वर्तमान प्रसंग में अपसंचयों का कार्य भिन्न है। इसके अलावा उपलभ्य द्रव्य की राशि अधिक होनी चाहिए , एक तो इसलिए कि पूंजीवादी उत्पादन के अंतर्गत सभी उत्पाद ( नवोत्पादित बहुमूल्य धातुओं को तथा कुछ ऐसे उत्पाद छोड़कर, जिनका उपभोग उत्पादक स्वयं करता है ) मालों के रूप में निर्मित किये जाते हैं और इसलिए उन्हें द्रव्य की कोशावस्था पार करनी होती है ; दूसरे, इसलिए कि पूंजीवादी आधार पर माल पूंजी की माना और उसके मूल्य का परिमाण निरपेक्ष रूप से ज्यादा बड़ा ही नहीं होता, वरन अनुपम शीघ्रता से बढ़ता भी है ; तीसरे, इसलिए कि निरंतर प्रसारमान परिवर्ती पूंजी को सदैव द्रव्य पूंजी में परिवर्तित करना होता है ; चौथे , इसलिए कि नई द्रव्य पूंजियों का निर्माण उत्पादन के विस्तार के साथ कदम मिलाये रहता है, ताकि तदनुरूप अपसंचय निर्माण के लिए सामग्री सुलभ रहे। सामान्यतः यह वात पूंजीवादी उत्पादन की उस पहली मंज़िल के बारे में सही है, जिसमें उधार पद्धति के साथ भी अक्सर धातु मुद्रा परिचलन चलता है और यह वात उधार पद्धति के सर्वाधिक विकसित दौर पर भी उस हद तक लागू होती है कि धातु मुद्रा परिचलन उसका आधार रहता है। एक ओर वहुमूल्य धातुओं का अतिरिक्त उत्पादन वारी-बारी से प्रचुर या अपर्याप्त होने के कारण यहां मालों की कीमतों पर दीर्घ ही नहीं, अत्यल्प अंतरालों पर भी विक्षोभकारी प्रभाव डाल सकता है। दूसरी ओर उधार की सारी क्रियाविधि लगातार विविध क्रियाओं, तरीकों और प्राविधिक उपायों के ज़रिये वास्तविक धातु परिचलन को घटाकर अपेक्षाकृत और भी घटते अल्पतम स्तर तक लाने में लगी रहती है। सारे तंत्र की कृत्रिमता और उसके सामान्य क्रम को अस्त-व्यस्त करने की संभावना उसी परिमाण में बढ़ती जाती है। विभिन्न ख, ख', ख", इत्यादि (I) की आभासी नई द्रव्य पूंजी जब अपना सक्रिय