पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४४२

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संचय तथा विस्तारित पैमाने पर पुनरुत्पादन ४४१ . . नहीं हो सकते। इसलिए II में अत्युत्पादन होगा, जो परिमाण में उत्पादन के ठीक उस प्रसार के वरावर होगा, जो I में होता है। II में यह अत्युत्पादन. I पर यहां तक प्रभाव डाल सकता है कि I के मजदूरों द्वारा II की उपभोग वस्तुओं पर खर्च किये जानेवाले १,००० का पश्चप्रवाह भी अंशतः ही हो, जिससे ये १,००० परिवर्ती द्रव्य पूंजी के रूप में I पूंजी- पतियों के पास लौटकर आयेंगे ही नहीं। इस प्रकार ये पूंजीपति अपरिवर्तित पैमाने पर भी पुनरुत्पादन में अपने को प्रतिवाधित पायेंगे और यह भी उसके प्रसार का प्रयत्न मात्र करने से। इस संदर्भ में यह ध्यान में रखना चाहिए कि में यथार्थतः केवल साधारण पुनरुत्पादन हुआ था और उसके तत्वों को जैसे कि वे हमारी सारणी में प्रस्तुत किये गये हैं, भविष्य में , यथा अगले साल प्रसार की दृष्टि से वस अलग ढंग से समूहित किया गया है। हो सकता है कि इस कठिनाई से निम्नलिखित तरीके से बच निकलने का प्रयास किया जाये : जो ५०० IIस पूंजीपतियों ने भंडार में जमा कर रखे हैं और जो तुरंत उत्पादकः पूंजी में परिवर्तित नहीं किये जा सकते , वे अत्युत्पादन तो दूर, उलटे पुनरुत्पादन का आवश्यक तत्व हैं, जिसकी ओर हमने अभी तक ध्यान नहीं दिया था। हम देख चुके हैं कि अनेक बिंदुओं पर द्रव्य पूर्ति का संचय किया जाना चाहिए , अतः परिचलन से द्रव्य निकाला जाना चाहिए, अंशतः I में नई द्रव्य पूंजी का निर्माण संभव बनाने के लिए और अंशतः क्रमशः ह्रासमान स्थायी पूंजी के मूल्य को द्रव्य रूप में अस्थायी तौर पर क़ब्जे में रखे रखने के लिए। लेकिन चूंकि हमने अपनी सारणी बनाते समय सारा द्रव्य और सारा माल केवल I तथा II पूंजीपतियों के हाथों में रख दिया था और चूंकि यहां न तो व्यापारी हैं, न सर्राफ़, न बैंकर, न ऐसे वर्ग, जो केवल उपभोग करते हैं और प्रत्यक्ष उत्पादन नहीं करते , इसलिए यह नतीजा निकलता है कि यहां अपने-अपने उत्पादकों के पास माल भंडारों का निरंतर निर्माण पुनरुत्पादन तंत्र को चालू रखने के लिए अपरिहार्य है। अतः पूंजीपति II ने जो ५०० IIस भंडार में डाले हुए हैं, वे उपभोग वस्तुओं की माल पूर्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो पुनरुत्पादन में निहित उपभोग प्रक्रिया के सातत्य को सुनिश्चित करती है, जिसका यहां अर्थ है साल दर साल उसका चालू रहना। वह उपभोग निधि , जो अभी अपने विक्रेताओं के हाथ में है, जो साथ ही उसके उत्पादक भी हैं, किसी साल इसलिए घटकर शून्य के स्तर पर नहीं पहुंच सकती कि अगले साल की शुरूआत शून्य से हो, जैसे आज से कल तक के संक्रमण में भी ऐसी बात नहीं हो सकती। चूंकि मालों की ऐसी पूर्तियों का निरंतर फिर से - यद्यपि भिन्न-भिन्न परिमाण में- निर्माण करना होता है, इसलिए हमारे पूंजीपति उत्पादकों II के पास आरक्षित द्रव्य पूंजी रहनी चाहिए, जिससे कि अपनी उत्पादन प्रक्रिया जारी रख सकें, यद्यपि उनकी उत्पादक पूंजी का एक भाग अस्थायी रूप में मालों की शक्ल में बंधकर पड़ा होता है। हमारी कल्पना यह है कि वे समस्त व्यापार व्यवसाय को उत्पादन व्यवसाय से संयुक्त कर लेते हैं। इसलिए उनके पास ज़रूरत के समय काम आने के लिए अतिरिक्त द्रव्य पूंजी. भी रहनी चाहिए, जो पुन- रुत्पादन प्रक्रिया में पृथक कार्यों के अलग होने और विभिन्न प्रकार के पूंजीपतियों में वितरित होने के समय व्यापारियों के हाथ में होती है। इस पर ये आपत्तियां की जा सकती हैं : १) ऐसी पूर्तियों का निर्माण और इस निर्माण की आवश्यकता सभी - I और II दोनों के ही- पूंजीपतियों के लिए है। मालों के विक्रेता मात्र मानकर उन पर विचार करें, तो उनमें केवल यह भिन्नता है कि वे भिन्न प्रकार के माल वेचते हैं। माल II की पूर्ति का मतलव है माल I की पूर्व पूर्ति । यदि हम एक ओर -