पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४४६

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संचय तथा विस्तारित पैमाने पर पुनरुत्पादन ४४५ लिए ही अचानक इस परिकल्पना को छिपे-छिपे लाने का कोई अधिकार नहीं है कि वह ३७६५ के बजाय केवल ३५०५ दे सकता है। २) दूसरी ओर समग्र रूप में II को I की अपेक्षा यह उपर्युक्त सुविधा है कि वह श्रम शक्ति का ग्राहक है और साथ ही साथ अपने ही श्रमिकों को अपने माल का विक्रेता भी है। प्रत्येक प्रौद्योगिक देश ( यथा ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमरीका ) इसके अत्यंत ठोस प्रमाण उपलब्ध करता है कि इस सुविधा से कैसे लाभ उठाया जा सकता है - नाम को सामान्य मज़- दूरी देकर , पर बदले में माल में समतुल्य दिये विना उसका एक हिस्सा हथियाकर , यानी चुराकर ; यही काम जिंस रूप मजदूरी के ज़रिये या परिचलन माध्यम में धोखाधड़ी के जरिये (और शायद इस सफ़ाई से कि कानून की पकड़ में भी न पा सके) करके। ( इस मौक़े का कुछ उदाहरण देकर इस विचार को विस्तार देने के लिए उपयोग कीजिये।) यह १) के अंतर्गत किया गया कार्य ही है, बस दूसरे वेश में है और टेढ़े रास्ते से किया गया है। इसलिए इसे भी पहलेवाले की तरह ही अस्वीकार कर देना चाहिए। यहां हम वास्तव में दी हुई मजदूरी का विवेचन कर रहे हैं, न कि नामिक मजदूरी का। हम देखते हैं कि पूंजीवाद की क्रियाविधि के वस्तुगत विश्लेषण में उसके साथ अब भी असाधारण चीमड़पन से चिपके कुछेक दागों का सैद्धांतिक कठिनाइयों से बचने के लिए बहाने की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। लेकिन विचित्र वात है कि मेरे अधिकांश बूर्जुमा आलोचक मुझे इसलिए खरी-खोटी सुनाते हैं, मानो मैंने ~ यथा 'पूंजी' के प्रथम खंड में यह मानकर पूंजीपतियों के प्रति अन्याय किया हो कि पूंजीपति श्रम शक्ति की अदायगी उसके वास्तविक मूल्य के अनुसार करता है, एक ऐसा काम कि जो वह ज्यादातर नहीं ही करता ! ( जिस उदारता का श्रेय मुझे दिया जाता है, उसका कुछ उपयोग करते हुए शैफ्ले को उद्धृत करना उचित होगा।) इस तरह ३७६ II4 के सहारे हम पहले वताये हुए लक्ष्य के कुछ अधिक समीप नहीं पहुंच जाते। किंतु ३७६ II की स्थिति तो और भी अधिक संकटपूर्ण जान पड़ती है। यहां बस एक ही वर्ग के पूंजीपति अपनी पैदा की उपभोग वस्तुओं का पारस्परिक क्रय-विक्रय करते हुए एक दूसरे के सामने आते हैं। इन लेन-देनों के लिए आवश्यक धन केवल परिचलन के माध्यम का कार्य करता है और सामान्य स्थिति में वह संवद्ध लोगों के पास उसी अनुपात में लौटेगा, जिसमें उन्होंने उसे परिचलन के लिए पेशगी दिया था, जिससे कि वह उसी रास्ते पर वार-बार चक्कर लगाता रहे। दो ही तरीके दिखाई देते हैं, जिनसे इस द्रव्य को वस्तुतः अतिरिक्त द्रव्य पूंजी के निर्माण के लिए परिचलन से निकाला जा सकता है। या तो पूंजीपति II का एक हिस्सा दूसरे को ठगता है और इस तरह उनका धन उनसे छीन लेता है। हम जानते हैं कि नई द्रव्य पूंजी के निर्माण के लिए परिचलन माध्यम का पूर्व प्रसार आवश्यक नहीं है। आवश्यक वस यह है कि कुछ लोगों द्वारा परिचलन से धन निकाला जाये और जमा कर लिया जाये। यदि यह धन चुरा भी लिया जाये, जिससे कि पूंजीपति II के एक हिस्से द्वारा अतिरिक्त द्रव्य पूंजी का निर्माण किये जाने से दूसरे हिस्से की निश्चित धन हानि होगी, तो भी स्थिति में कोई अंतर नहीं पायेगा। ठगे गये पूंजीपति II जरा कम मौज में रहेंगे, वस इतना ही। - ..