पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

संचय तथा विस्तारित पैमाने पर पुनरुत्पादन ४५१ 1 है और उसके बारे में अधिक कुछ कहना अनावश्यक है। फिर भी कुछ विशेषताएं वच रहती हैं, जिन पर यहां ध्यान देना चाहिए, जो इस तथ्य से पैदा होती हैं कि संचयशील पुनरुत्पादन में I(प+१/२वे ) का प्रतिस्थापन अकेले II से नहीं, वरन IIस तथा II के एक अंश के योग द्वारा होता है। में कहना न होगा कि संचय की कल्पना करने के साथ II की तुलना (प+बे) अधिक हो जाता है ; वह IIA के वरावर नहीं होता, जैसे कि साधारण पुनरुत्पादन में होता है। कारण यह कि एक तो I अपने वेशी उत्पाद के एक अंश का अपनी ही उत्पादक पूंजी में समावेश करता है और उसका ५/६ भाग स्थिर पूंजी में परिवर्तित करता है, इसलिए वह साथ ही साथ इस ५/६ का उपभोग वस्तु II द्वारा प्रतिस्थापन नहीं कर सकता। दूसरे, I को अपने ही वेशी उत्पाद से II के अंतर्गत संचय के वास्ते आवश्यक स्थिर पूंजी के लिए सामग्री जुटानी होती है, जैसे II को I के लिए उस परिवर्ती पूंजी के लिए सामग्री जुटानी पड़ती है, जो स्वयं I द्वारा नियोजित I की बेशी उपज के अंश को अतिरिक्त स्थिर पूंजी के रूप में गतिशील करेगी। हम जानते हैं कि वास्तविक परिवर्ती पूंजी में , अतः अतिरिक्त परिवर्ती पूंजी में भी श्रम शक्ति समाहित होती है। यह पूंजीपति I नहीं है कि जो II से जीवनावश्यक वस्तुओं की पूर्ति खरीदता है और उनका स्वयं अपने द्वारा नियोजित अतिरिक्त श्रम शक्ति के लिए संचय करता है, जैसा दास स्वामी को करना पड़ता था। खुद मजदूर II के साथ लेन-देन करते हैं। किंतु इससे यह नहीं हो जाता कि पूंजीपति अपनी अतिरिक्त श्रम शक्ति की उपभोग वस्तुओं को अंततः अपनी अतिरिक्त श्रम शक्ति के उत्पादन और भरण-पोषण के इतने साधन मात्र समझना और इसलिए अपनी परिवर्ती पूंजी का दैहिक रूप समझना बंद कर दे। उसका अपना तात्कालिक कार्य -I के प्रस्तुत प्रसंग में - केवल अतिरिक्त श्रम शक्ति खरीदने के लिए आवश्यक नई द्रव्य पूंजी को जमा करते रहना होता है। जैसे ही वह उसका अपनी पूंजी में समावेश कर लेता है, द्रव्य इस श्रम शक्ति के लिए माल II की खरीद का साधन बन जाता है, जिसके लिए ये उपभोग वस्तुएं सुलभ होनी चाहिए। प्रसंगवश पूंजीपति को और उसके अख़बारों को अक्सर उस तरीके से असंतोष होता है, जिससे श्रम शक्ति अपना धन खर्च करती है और II मालों से असंतोष होता है, जिनके रूप वह इस धन का सिद्धिकरण करती है। ऐसे मौक़ों पर वह फ़लसफ़ा झाड़ता है, संस्कृति को लेकर वक़वास करता है और परोपकार की बातें वधारता है, यथा वाशिंगटन स्थित ब्रिटिश दूतावास के सचिव श्री ड्रमंड की तरह। उनके अनुसार The Nation ( एक पत्रिका) में गत अक्तूबर, १८७६ में एक दिलचस्प लेख छपा था, जिसमें और वातों के अलावा ये. अंश भी थे : "श्रमिक जनों ने आविष्कारों की प्रगति के साथ संस्कृति में प्रगति नहीं की है और उन पर ऐसी चीजें वरसाई जाती रही हैं, जिनका उपयोग करना वे नहीं जानते और इसलिए जिनके लिए वे वाज़ार नहीं बनाते।" [प्रत्येक पूंजीपति स्वभावतः चाहता है कि मजदूर उसका माल खरीदें।] "कोई कारण नहीं कि श्रमिक उतनी ही सुख-सुविधाओं की कामना न करे, जितनी की उसी के वरावर कमाई करनेवाला कोई पादरी, वकील और डाक्टर करता है। [वकीलों, पादरियों और डाक्टरों के इस वर्ग को सचमुच कई सुख-सुविधाओं की तो कामना मान से संतोष करना होता है ! ] "लेकिन वह ऐसा नहीं करता। यह समस्या बनी रहती है कि उसका बुद्धिसंगत और स्वस्थ तरीकों से उपभोक्ता के रूप में उत्थान कैसे किया जाये, और .