पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/७४

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उत्पादक पूंजी का परिपथ ७३ , वनाया न जायेगा। यह वात ख़ास तौर से उन अनेक आवश्यक निर्वाह साधनों पर लागू होती है, जिनका उपभोग वरवादी को रोकने के लिए लगभग उत्पादन होने के साथ कर डालना आवश्यक होता है। इस प्रकार द्रव्य रूप में श्रमिक जो मजदूरी पाता है, वह उसी के अथवा अन्य मजदूरों के भावी श्रम का परिवर्तित रूप है। श्रमिक को उसके पूर्व श्रम का ही एक भाग देकर पूंजीपति उसके भावी श्रम के लिए ड्राफ्ट देता है। मजदूर का श्रम ही, जिसे चाहे वह अभी करे, चाहे भविष्य में , वह पूर्ति है, जिसका अभी अस्तित्व नहीं है, किन्तु जिसमें से श्रम के लिए उसे पैसा दिया जायेगा। इस प्रसंग में अपसंचय की धारणा पूर्णतः लुप्त हो जाती है। दूसरे, मा- द्र- मा <उसा के परिचलन में वही द्रव्य अपना स्थान दो बार वदलता है। पूंजीपति पहले उसे विक्रेता की हैसियत से प्राप्त करता है और क्रेता की हैसियत से दे देता है। द्रव्य रूप में मालों का रूपान्तरण केवल द्रव्य रूप से माल रूप में उसका पुनः- रूपान्तरण करने का कार्य करता है। अतः पूंजी का द्रव्य रूप, द्रव्य पूंजी की हैसियत से उसका अस्तित्व इस गति का क्षणिक दौर मात्र है ; अथवा गति में जहां तक प्रवाह है, द्रव्य पूंजी केवल परिचलन के माध्यम रूप में प्रकट होती है, जब वह खरीदारी के साधन रूप में काम अाती है। वह ख़ास तौर पर अदायगी के माध्यम के रूप में काम करती है, जब पूंजीपति एक दूसरे से माल खरीदते हैं, और इसलिए जब उन्हें केवल अपना हिसाव किताव वरावर करना होता है। तीसरे, द्रव्य पूंजी चाहे परिचलन का माध्यम हो, चाहे अदायगी का, उसका कार्य मा की जगह श्र और उ सा की प्रतिस्थापना सम्पन्न करना ही है, अर्थात सूत की जगह , उस माल की जगह , जो उत्पादक पूंजी का परिणाम है ( उस वेशी मूल्य को घटाने के वाद, जो श्राय के रूप में इस्तेमाल किया जायेगा), उसके उत्पादन तत्वों की प्रतिस्थापना करना है। दूसरे शब्दों में द्रव्य पूंजी का कार्य माल रूप से इस माल को बनानेवाले तत्वों के रूप में पूंजी मूल्य का पुनःरूपान्तरण सम्पन्न करना है। अन्ततोगत्वा द्रव्य पूंजी का कार्य उत्पादक पूंजी में माल पूंजी के पुनःरूपान्तरण का ही संवर्धन करता है। परिपथ अपनी सामान्य गति से पूरा हो जाये , इसके लिए आवश्यक है कि मा' को उसके मूल्य पर बेचा जाये और उसकी समग्रता में बेचा जाये। इसके अलावा मा में एक माल की जगह दूसरे माल की प्रतिस्थापना ही सम्मिलित नहीं है, वरन ऐसी प्रतिस्थापना सम्मिलित है, जहां मूल्य सम्बन्ध पूर्ववत बने रहते हैं। हम मान लेते हैं कि यहां भी ऐसा ही होता है। किन्तु वास्तव में उत्पादन साधनों के मूल्य भिन्न होते हैं। पूंजीवादी उत्पादन ही ऐसा उत्पादन है, जिसकी विशेषता है मूल्य सम्बन्धों में निरन्तर परिवर्तन ; किसी और कारण से नहीं, तो इसलिए कि श्रम की उत्पादिता निरन्तर परिवर्तनशील है, जो इस उत्पादन पद्धति का लक्षण है । उत्पादन तत्वों के मूल्य में इस परिवर्तन का विवेचन आगे किया जायेगा, .

  • यहां मार्क्स ने पाण्डुलिपि में यह लिखा था : “किन्तु यह सव दूसरे खंड के अंतिम

भाग का अंग है।"-सं० " इस पुस्तक के अध्याय १५ का पांचवां परिच्छेद देखें। -सं०