७६ पूंजी के रूपांतरण और उनके परिपय में प्रथम तत्व द्र श्र समाहित होता है, जिसका श्रमिक के लिए अर्थ है श्र-द्र जो मा-द्र के बराबर होता है। श्रमिक के परिचलन श्र-द्र- मा में उसका उपभोग भी सम्मिलित होता है। इस परिचलन से द्र-श्र के फलस्वरूप केवल पहला तत्व पूंजी के परिपथ के भीतर आता है। द्र-मा की दूसरी क्रिया वैयक्तिक पूंजी के परिचलन के भीतर नहीं आती, यद्यपि उसका उद्भव उसी से होता है। किन्तु पूंजीपति वर्ग के लिए मजदूर वर्ग का निरन्तर अस्तित्व आवश्यक है और इसलिए श्रमिक का उपभोग भी आवश्यक है, जो द्र मा द्वारा सम्भव होता है। मा'-द्र' क्रिया की एक ही शर्त होती है, जिससे पूंजी मूल्य अपना परिपथ जारी रख सके और पूंजीपति वेशी मूल्य का उपभोग कर सके। वह शर्त यह है कि मा' द्रव्य में परिवर्तित कर दिया जाये , उसे बेच दिया जाये। वेशक मा केवल इसलिए खरीदा जाता है कि यह वस्तु उपयोग मूल्य है, इसलिए किसी भी तरह के उपभोग के काम आ सकती है, उपभोग चाहे उत्पादक हो चाहे व्यक्तिगत। किन्तु यदि, मिसाल के लिए , मा' का परिचलन उस सौदागर के हाथों में होता है, जिसने सूत ख़रीदा था, तो उसका पहले उस वैयक्तिक पूंजी के परिपथ के चालू रहने पर ज़रा भी असर नहीं पड़ता , जिसने सूत पैदा किया था और उसे सौदागर के हाय वेचा था। सारी प्रक्रिया चलती रहती है और उसके साथ उसके द्वारा अावश्यक बनाया पूंजीपति और श्रमिक का व्यक्तिगत उपभोग भी चालू रहता है। संकटों के विवेचन के लिए यह वात महत्वपूर्ण है। जैसे ही मा' को बेचा जाता है, द्रव्य में परिवर्तित किया जाता है, वैसे ही श्रम प्रक्रिया और इस प्रकार पुनरुत्पादन प्रक्रिया के वास्तविक उपादानों के रूप में उसे पुनःपरिवर्तित किया जा सकता है। मा’ को अन्त में उपभोक्ता ख़रीदता है अथवा फिर वेचने के लिए कोई सौदागर खरीदता है, इससे मामले पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। पूंजीवादी उत्पादन मालों की जो विराट माना निर्मित करता है, वह इस उत्पादन के पैमाने पर निर्भर करती है, और इस उत्पादन को निरन्तर विस्तार देते रहने की आवश्यकता पर निर्भर करती है, वह मांग और पूर्ति के किसी पूर्वनिर्धारित चक्र पर कदापि निर्भर नहीं करती, उन आवश्यकताओं पर निर्भर नहीं करती, जिन्हें तुष्ट करना होता है। अन्य प्रौद्योगिक पूंजीपतियों के अलावा, थोक विक्रेता के सिवा बड़े पैमाने पर उत्पादन का और कोई प्रत्यक्ष ग्राहक नहीं हो सकता। कुछ सीमानों के भीतर पुनरुत्पादन की प्रक्रिया उसी पैमाने पर अथवा बढ़े हुएं पैमाने पर उस हालत में भी सम्पन्न हो सकती है, जब उसके द्वारा निःसृत मालों ने दरअसल व्यक्तिगत अथवा उत्पादक उपभोग में प्रवेश न किया हो। मालों का उपभोग पूंजी के उस परिपथ में सम्मिलित नहीं किया जाता , जिससे उनका उद्भव हुअा था। उदाहरण के लिए, जैसे ही सूत वेच दिया जाता है, वैसे ही इस की चिन्ता के बिना कि इसके बाद वेचे हुए सूत का क्या होगा, पूंजी मूल्य , जो मूत के रूप में है, नये सिरे से अपना परिपथ शुरू कर सकता है। जब तक उत्पाद विकता रहता है, तव तक पूंजीवादी उत्पादक के दृष्टिकोण से हर चीज़ अपने ढरे पर चल रही होती है। पूंजी मूल्य के जिस परिपथ से उसका नाता है, उसमें व्याघात नहीं पड़ता। और यदि इस प्रक्रिया को विस्तार दिया जाये - जिसमें उत्पादन साधनों का बढ़ा हुअा उत्पादक उपभोग शामिल 1 . .