पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/८०

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उत्पादक पूंजी का परिपथ ७६ . . ऐसा उपादान बनकर प्रकट होता है, जो पूंजीवादी संचय प्रक्रिया के अन्तर्गत , उसके साथ- साथ सम्पन्न होता है, किन्तु जो फिर भी तत्वतः उससे भिन्न है। कारण यह है कि पुनरुत्पादन प्रक्रिया अंतर्हित द्रव्य पूंजी के निर्माण से विस्तार नहीं पाती। इसके विपरीत अंतर्हित द्रव्य पूंजी यहां निर्मित इसलिए होती है कि पूंजीवादी उत्पादक अपने उत्पादन के पैमाने को सीधे विस्तार नहीं दे सकता। यदि वह अपना वेशी उत्पाद सोने या चांदी के उत्पादक के हाथ वेच देता है, जो नया सोना या चांदी परिचलन में डाल देता है अथवा-जो एक ही वात है- यदि वह अपना वेशी उत्पाद किसी सौदागर को बेच देता है, जो राष्ट्रीय वेशी उत्पाद का एक भाग देकर विदेश से और अधिक सोने या चांदी का आयात करता है, तब उसकी अंतर्हित द्रव्य पूंजी सोने या चांदी के राष्ट्रीय अपसंचय में वृद्धि बन जाती है। अन्य सभी प्रसंगों में , उदाहरण के लिए, ७८ पाउंड , जो ग्राहक के हाथ में परिचलन का माध्यम थे, पूंजीपति के हाथ में केवल अपसंचय का रूप ग्रहण करते हैं। इसलिए जो कुछ हुआ है, वह केवल सोने या चांदी के राष्ट्रीय अपसंचय का एक भिन्न वितरण है। हमारे पूंजीपति के कारवार यदि द्रव्य भुगतान साधन का काम करता है (ग्राहक को छोटी-बड़ी अवधि पर मालों की कीमत चुकाना होता है ), तव जो वेशी उत्पाद पूंजीकरण के लिए उद्दिष्ट था, वह द्रव्य में रूपान्तरित नहीं होता, वल्कि लेनदार के दावों में , ऐसे समतुल्य पर स्वामित्व के अधिकार में परिवर्तित होता है, जो ग्राहक के पास पहले से हो सकता है या जिसके होने की वह आशा कर सकता है। वह परिपथ की पुनरुत्पादन प्रक्रिया में वैसे ही प्रवेश नहीं करता जैसे सव्याज प्रतिभूतियों, आदि पर लगाया हुआ धन , यद्यपि वह अन्य वैयक्तिक औद्योगिक पूंजियों के परिपथों में प्रवेश कर सकता है। पूंजीवादी उत्पादन का सारा स्वरूप पेशगी दिये पूंजी मूल्य के स्वविस्तार द्वारा निर्धारित होता है ; दूसरे शब्दों में सबसे पहले जितना वेशी मूल्य पैदा किया जा सके , उससे। दूसरे, वह पूंजी के उत्पादन से , अतः पूंजी में वेशी मूल्य के रूपान्तरण से निर्धारित होता है ( देखिये Buch I, Kap. XXII) * । संचय अथवा विस्तारित पैमाने पर उत्पादन , जो वेशी मूल्य के निरन्तर अधिकाधिक प्रसारित उत्पादन का, और इसलिए पूंजीपति के व्यक्तिगत लक्ष्य के रूप में उसके सम्पन्नीकरण का साधन बनकर प्रकट होता है और जो पूंजीवादी उत्पादन की सामान्य प्रवृत्ति में समाहित होता है, लेकिन जैसा कि प्रथम खंड में दिखाया जा चुका है, आगे चलकर अपने विकास के कारण प्रत्येक पृथक पूंजीपति के लिए आवश्यकता बन जाता है। अपनी पूंजी की सतत संवृद्धि उसे बनाये रखने की शर्त बन जाती है। किन्तु जिस बात का पहले ही विवेचन हो चुका है, उसकी फिर से अधिक विस्तार से व्याख्या करना आवश्यक नहीं है। हमने पहले यह मानते हुए साधारण पुनरुत्पादन पर विचार किया था कि सारा वेशी मूल्य आय के रूप में खर्च किया जाता है। वास्तव में सामान्य परिस्थितियों में वेशी मूल्य के एक भाग को हमेशा आय के रूप में खर्च करना होगा और दूसरे भाग का पूंजीकरण होगा। और इस बात का कुछ भी महत्व नहीं है कि किसी अवधि विशेष में उत्पादित कोई वेशी मूल्य पूरी तरह ख़र्च कर दिया जाता है या पूरी तरह पूंजीकृत किया जाता है। औसत रूप में दोनों बातें होती हैं - और जो सामान्य सूत्र है, वह औसत गति ही व्यक्त कर सकता है। किन्तु इस सूत को उलझायें नहीं, इसलिए यह मान लेना ज्यादा अच्छा है कि सारे वेशी मूल्य का 'हिन्दी संस्करण : अध्याय २४ । -सं०