पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/८४

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उत्पादक पूंजी का परिपथ ८३ श्र उ सा द्र के अस्तित्व मात्र से स्वतन्त्र हैं। यदि द्र को द्रव्य पूंजी के रूप में किसी दूसरे स्वतन्त्र व्यवसाय में काम करना है, जो पहले के साथ-साथ चलाया जायेगा, तो यह स्पष्ट है कि उसका इस उद्देश्य के लिए तव तक उपयोग नहीं किया जा सकता कि जब तक उसने इसके लिए आवश्यक न्यूनतम आकार न प्राप्त कर लिया हो। और यदि मूल व्यवसाय के प्रसार के लिए उसे काम में लाना उद्दिष्ट है , तो उ के भौतिक उपादान तथा उनके मूल्य सम्बन्धों के परस्पर सम्बन्ध भी यह मांग करते हैं कि द्र का न्यूनतम परिमाण हो। इस व्यवसाय में उपयुक्त समस्त उत्पादन साधनों का एक दूसरे से गुणात्मक ही नहीं, एक निश्चित परिमाणात्मक सम्बन्ध भी होता है, परिमाण के लिहाज से वे यथानुपात होते हैं। ये भौतिक सम्बन्ध तथा उत्पादक पूंजी में प्रवेश करनेवाले उपादानों के प्रासंगिक मूल्य सम्बन्ध भी द्र का वह न्यूनतम परिमाण निर्धारित करते हैं, जिसे प्राप्त करके वह उत्पादन के अतिरिक्त साधनों और अतिरिक्त श्रम शक्ति में अथवा केवल उत्पादन साधनों में, उत्पादक पूंजी में वृद्धि के रूप में रूपांतरित होने के योग्य वनता है। इस प्रकार कताई मिल का मालिक अपने तकुत्रों की संख्या तब तक नहीं बढ़ा सकता कि जब तक अनुरूप संख्या में धुनने और पूनी बनाने की मशीनें भी न ख़रीदे। व्यावसायिक अपेक्षाओं के इस प्रसार से कपास और मजदूरी पर होनेवाले व्यय की वृद्धि इसके अलावा है। इसलिए यह सब करने के लिए वेशी मूल्य का काफ़ी वड़ा आकार प्राप्त कर लेना आवश्यक होता है ( जिसे सामान्यतः एक पाउंड प्रति नया तकुआ माना जाता है) । यदि द्र यह न्यूनतम प्राकार प्राप्त नहीं करता, तो पूंजी के परिपथ को तब तक दोहराना होगा कि उसके द्वारा उत्तरोत्तर उत्पादित द्र की राशि द्र के साथ कार्य कर सके , अतः द्र' - मा< छोटी-मोटी चीजों में तबदीली करने के लिए भी, उदाहरण के लिए, अधिक उत्पादक बनाने के लिए कताई मशीनों में, कताई के सामान पर, पूनी बनाने की मशीनों, आदि पर अधिक व्यय आवश्यक होता है। इस बीच द्र संचित होता रहता है। उसका यह संचय उसका अपना कार्य नहीं है, वरन वह उ उ की पुनः प्रावृत्ति का फल है। उसका अपना कार्य इसमें निहित है कि वह तव तक द्रव्य की अवस्था में बना रहे कि जब तक पुनरावर्तित वेशी मूल्य सृजक परिपथों से - अर्थात वाहर से - पर्याप्त वृद्धि न प्राप्त कर ले , ताकि वह अपने सक्रिय कार्य के लिए आवश्यक न्यूनतम परिमाण को हासिल कर ले। इस परिमाण में ही वह वस्तुतः द्रव्य पूंजी की हैसियत से द्र के कार्य में प्रवेश पा सकता है। प्रस्तुत प्रसंग में यह कार्यशील द्रव्य पूंजी द्र का संचित भाग है। किन्तु इस बीच वह संचित होता रहता है और निर्माण की, वृद्धि की प्रक्रिया में अपसंचय के रूप में ही अस्तित्वमान रहता है। इसलिए द्रव्य का संचय , उसकी जमाखोरी यहां ऐसी प्रक्रिया के रूप में सामने आता है, जो अस्थाई तौर पर वास्तविक संचय के साथ , प्रौद्योगिक पूंजी के कार्य के विस्तार के साथ चलता है। अस्थाई तौर पर इसलिए कि अपसंचय जब तक अपसंचय की अवस्था में बना रहता है, तब तक वह पूंजी रूप में कार्य नहीं करता, वेशी मूल्य की सृजन प्रक्रिया में भाग नहीं लेता , ऐसी धनराशि वना रहता है, जो केवल इसलिए वढ़ती रहती है कि उसके कुछ किये विना प्राप्त धन भी उसी तिजोरी में डाल दिया जाता है। अपसंचय का रूप द्रव्य का ही वह रूप है, जो परिचलन में नहीं है, उस द्रव्य का रूप है, जिसका परिचलन विच्छिन्न हो गया है और जो इस कारण द्रव्य रूप में स्थिर हो गया +