पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/९५

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पूंजी के रुपांतरण सौर उनके परिपय - उत्पादन प्रक्रिया में उत्सादर पूंजी के मान घटकों के उपयोग रूप तया मूल्य द्वारा अनुभूत वास्तविर रूपान्तरण का परिणाम भी है। प्रारम्भिक छोर द्र, उ प्रयया मा' का रूप तदनुरूप परिपय १, २ अथवा ३ का पूर्णधार है। प्रन्तिम छोर में वापस पानेवाला रूप स्वयं परिपथ के रूपान्तरणों की एक श्रृंखला द्वारा पूर्वामित और फलतः अस्तित्व में लाया जाता है। वैयक्तिक प्रौद्योगिक पूंजी के परिपथ में अंतस्य बिंदु की हैसियत से मा' केवल उसी प्रौद्योगिक पूंजी के अपरिचलन रूप उ की पूर्वरल्लना करता है, जिसका वह उत्पाद है। रूप १ के अंतस्य विंदु की हैसियत से , मा' (मा' - द्र') के परिवर्तित रूप की हैसियत से द्र' यह पूर्वकल्पना करता है कि द्र ग्राहक के हाथ में है, द्र' परिपय के बाहर है , और मा' की विक्री द्वारा ही वह उसके भीतर नाया जाता और स्वयं उसका अंतस्य रूप बन जाता है। इस प्रकार रूप २ में अंतस्य उ यह पूर्यकल्पना करता है कि श्र तथा उ सा (मा) उसके बाहर विद्यमान हैं और द्र- मा द्वारा उसके अंतस्य रूप की तरह उसमें समाविष्ट किये जाते हैं। किंतु अंतिम छोर के अलावा वैयक्तिक द्रव्य पूंजी का परिपय सामान्य रूप में द्रव्य पूंजी के अस्तित्व की पूर्वकल्पना नहीं करता ; न वैयक्तिक उत्पादक पूंजी का परिपथ ही उत्पादक पूंजी के परिपथों के अस्तित्व की पूर्वकल्पना करता है। रूप १ में द्र प्रथम द्रव्य पूंजी हो सकता है ; रूप २ में उ ऐतिहासिक रंगमंच पर प्रकट होनेवाली प्रथम उत्पादक पूंजी हो सकता है। किंतु रूप ३ में द्र-मार (मा उ...मा' मा-द्र' उ सा मा- द्र-मा श्र उसा . . 1 मा परिपथ के वाहर दो बार पूर्वकल्पित है। पहली बार परिपथ मा' - द्र' - मा <. में। यह मा, जहां तक उसमें उ सा समाहित हैं , वियेता के हाथ में माल है। जहां तक वह उत्पादन की पूंजीवादी प्रक्रिया का उत्पाद है, वह स्वयं माल पूंजी है; और यदि वह न भी हो, तो भी सौदागर के हाथ में वह माल पूंजी की हैसियत से प्रकट होता है। दूसरी बार मा-द्र - मा के दूसरे मा में , जिसका भी माल की हैसियत से सुलभ होना आवश्यक होता है, ताकि उसे मरीदा जा सके । जो भी हो, श्र और उ सा माल पूंजी हों, या न हों, वे उतने ही माल हैं, जितना मा' है, और आपस में उनका माल का संबंध होता है। यही बात मा-द्र- मा के दूसरे मा के बारे में भी सही है। इसलिए चूंकि मा’ बरावर है मा (श्र + उ सा) के, अतः उसके पास स्वयं अपने उत्पादन के लिए तत्वों के रूप में पण्य वस्तुएं होती हैं और परिचलन में उन्हीं पण्य वस्तुनों द्वारा उसकी प्रतिस्थापना होना आवश्यक है। इसी प्रकार मा-द्र-मा में दूसरे मा की भी परिचलन में समान पण्य वस्तुओं से प्रतिस्थापना होनी चाहिए। इस आधार पर कि उत्पादन की पूंजीवादी पद्धति ही प्रचलित पद्धति है, विक्रेता के हाथ में मौजूद सभी पप्य वस्तुएं साय ही माल पूंजी भी होती हैं। यदि वे पहले ऐसी नहीं थीं, तो वे सौदागर के हाथ में ऐसी हो जाती हैं, अथवा ऐसी ही बनी रहती हैं। अथवा उन्हें ऐसे माल होना होगा- यया पायातित सामान - जो मूल माल पूंजी को प्रतिस्यापित करते हैं और इस प्रकार उसे अस्तित्व का एक दूसरा रूप मान दे देते हैं।