पृष्ठ:कालिदास.djvu/८८

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फालिदास। रदो के वाग्यन्धन की परवा न करके किसी साहित्यसेपी के विशेष अनुभव की सहायता पाकर विश्लेपित होगा। किन्तु कालिदास के काव्य जितना ही अधिक पाठ किये जाते हैं हमारा पूर्वोक्त मत उतना ही अधिक रद होता है। "रघुरपि- फायम्" की सरल भाषा से हम जितना ही अधिक मुग्ध होते हैं उतना ही अधिक मन में यह निश्चय हद होता है कि भारत के जीवित समय में साहित्य की सरल भाश और मनोह भाव के श्रादि कवि जैसे महर्षि वाल्मीकि है से ही उस अन्तिम समय के गायफ फालिदास है। कालिदास के रघुवंश का जितना ही पाउ पाप कीजिए, आपके मन में यह विभ्यास उतना ही रद होता जायगा कि यह प्रायों के गौरय, पापों के माधान्य, आर्यों के एफच्य राज्य के प्रकाराक नियांगोग्गुण दीपफ की प्रज्वलित अमिशिसा के समान है। गुप्त-मूल-अत्यन्त' रघु का भारत-विभय निर्षिभ समाप्त हो गया, 'गुप्त-सहशा अज मे इन्दुमनी को प्राप्त कर लिया, रामचन्द्र का धर्म-राज्य भी हो चुका। फितु मयि. प्पत् में शीघ्र ही भारत की राजधानी अयोधा राममार्गों के ऊपर गीदड़ों का समूह फिरने लगेगा- उसके महल वाट खंडहर हो जायेंगे-उसके मुन्दर और रमपीक पाणीचे- अगली भैंसों के घर बन जायेंगे। कालिदास ने जान लिया पा कि यद्यपि 'मासमुद्रक्षितीश' ममुगुम के समय में गुम-