पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/११५

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साप-निर्णय "साँवरे-अंगन में मलेसिल बों सुखमा समूह सँने है। पाही बिसासिन बाँसुरी में, बस कीबे के न्योत जलाल गने ॥ ए-ई बड़े ग. जिम गोप-वधू-टर पाइल कीन्हे बने हैं। बाँके हैं जैसे कछु सुन राखे है, चित्र में वेई चरित्र बने हैं।" मान भी-लघु, मध्यम और गुरु रूप से तीन प्रकार का, एवं विरह- अभिलाष-हेतुक, ईर्ष्या-हेतुक, विरह-हेतुक, प्रवास-हेतुक और शाप-हेतुक पांच प्रकार का कहा गया है। दासजी ने अपने श्रृंगार-निर्णय में इन्हें -अभिलाष, प्रवास, विरह, असूया ( ईर्ष्या ) और शापादि क्रमांतर रूप में माना है। नायक-नायिका के सौंदर्यादि गुणों के श्रवण से, प्रत्यक्ष वा चित्र अथवा स्वप्न-दर्शन से और परस्पर अनुरक्त नायक-नायिका के प्रथम अनुराग रूम मिलने वा अप्राप्त समागम के कारण मिलने की उत्कट इच्छा से होता है और ईया-हेतुक विरह मान-जनित कहा गया है। यह 'प्रणय' (अकारण नायक- नायिका का मान) और ईर्ष्या ( नायक को अन्य नायिका-अाशक्त जानकर कोप-भाव का होना) के कारण दो प्रकार का होता है। रीति-थकारों ने ईर्ष्या-मान को भो दो भेदों के रूप में माना है-'प्रत्यक्ष-दर्शन' (नायक को प्रत्यक्ष अन्याशक्त देखने पर ) और 'अनुमान' जो किसी के द्वारा सुनने पर होता है। समीप रहने पर भी गुरुजनों को लज्जा के कारण समागम का न होना भी विरह-हेतुक वियोग शृंगार कहा गया है। श्रीनंददास (अष्टाछाप) जी ने इसके प्रत्यक्ष, पलकांतर, बनांतर और देशांतर रूप से चार भेद किये है। प्रवास-हेतुक विरह--नायक-नायिका के दोनों में से एक के विदेश में रहने पर माना जाता है। यह भी--'भूत, भविष्यत् और वर्तमान नामक तीन प्रकार का कहा गया है। शाप-हेतुक वियोग की परिभाषा स्पष्ट है। वियोग- शृंगार में दश 'काम-दशाएँ-"अभिलाषा, चिंता, स्मृति, गुण-कथन, उग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मरण, कहो गयी है। इसी प्रकार पूर्व- कथित--शंका, औत्सुक्य, मद, ग्लानि, निद्रा, प्रबोध, चिंता, असूया, निवेद, स्वपनादि संचारी भाव तथा संताप, निद्राभंग, कृशता, प्रलागादि अनुभाव होते हैं।" अथ संजोग सिंगार बरनन 'सवैया' जथा-- विपरीति रची नँद-नंद' सों प्यारी, अनंद के कंद सों पागि रही। विथुरी मलके, सम-कॅन' मलके, तन-मोप अनूपम जागि रही ॥ पा०-१ ( भा० जी० ) नंद-नंदन सों। 2. ( भा० जी० ) (३० ) नम के..."