पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय अति 'दास' अघांनी अँनंग-कला,' अनुरागॅन-ही अनुरागि रहो। तिरछे तकि के, छबि सों छकि के, थिर है थकि के हिय लागि रहो । अथ अभिलाष-हेतु बियोग बरनन 'दोहा' जथा- हुँने लखें जह दंपति-हिं, उपजै प्रीति सुभाग । 'अभिलाषा' कोउ कहें, कोउ' पूरब-अनुराग ॥ अस्य उदाहरन 'कबित्त' जथा- माज वा गोपी को न गुपत रह्यौ हाल कछ, हाल बनमाल के हिंडोरे आँन झलिगौ । अँखियाँ मुखांबुज में भोर-ह्र सँमानीं, भई बाँनी गदगद, कंठ कम सौ फूलिगौ ।। जा मग सिधारे नँद-नंद ब्रज-स्वाँमी 'दास', जिनकी गुलामी मकरध्वज कबूलिगौ । वाही मग लागी नेह-घट में गंभीर-भरी, नोर-भरिबे को घटघाट-ही में भूलिगौ ॥ वि०-"दासजी ने यह उदाहरण पूर्वानुराग रूप प्रत्यक्ष-दर्शन का दिया है। चित्र-दर्शन का उदाहरण पूर्व में दिया जा चुका है और 'स्वप्न-दर्शन', यथा- "सपने-हूँ सोमनि न दई निर दई दई, बिखपति रही जैसें जल-बिन झखियाँ । 'कुंदन' सँदेसी भायौ लाल मधुसूदन को, सबै मिलि दौरी लेन अंगन-बिलखियाँ ॥ बूझे समाचार ना मुखागर सँदेसौ कछु, कागद लै कोरौ हाय दयौ लैके सखियाँ । छतियाँ सों पतियाँ लगाह बैठी बांचिबे कों, जौलों खोलों खाम तौलों खुलि गई अँखियाँ ॥" पा०-१.[0] मॅनंद-कला । २. [प्र०-२] सून"। ३. [प्र०] [भा० जी०] (३०) अभिलाखे .. । ४. (३०) को पुरबा...। ५. (प्र०) (०) आजु वहि गोपी की न गोपी रही...१६ (प्र०-२) गोप्यो रयौ... । ७. (प्र०) मन" (सं० प्र०) मॅनु...(३०) मानि" (प्र०-२) लाज | L. (३०) कद | ६. (३०) सों! १० (३०) घाट ।