पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/११८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कान्य-निर्णय "मोद-मदमाती, नख-रेखेन बिलोकि छाती, राती है नबोली चली सेज-तजि तैसें कै। को 'पदमाकर' कयौ मैं कै कहाँ तू चली, यों कहि गहोई ऐच अंचर अनसें कै॥ ताही समें रोस करि अधर कँपाइ कछु, ग-भरि भावती सुबोलि उठी ऐसे के। छोर, अरे छोर, मुख-मोर के कहे जे बन, वे अब बिसारे कहौ बिसरत कैसे कै॥" बिरह-हेतु उदाहरन 'सवैया' यथा -- नेनंन को तरसाईऐ कहाँ लों, कहाँ लों हियौ बिरहागि में तइए। एक घरी न कहूँ कल-पइए, कहाँ-लगि प्रॉनन को कलपइऐ॥ आबै यही अब 'दास' बिचार, सखी, चलि सौति हूँ के घर जइऐ । मॉन घटे ते कहा घटि जइऐ, जुपै प्रॉन-पियारे को देखन पइऐ ॥* वि०-"दास जी ने यह सवैया अपने 'शृगार-निर्णय' में 'सट की कनिष्ठा' नायिका के उदाहरण में भी दिया है, अाप का वहाँ कहना है- "इक अनुकूल-हि दच्छ, सठ, पृष्ट तियन अंग वॉम । प्यारी ज्येष्ठा, प्यार-बिन कहें कनिष्ठा नाम ॥ -,०नि० (दास) पृ० २४ अतएव अापने यहां प्रथम 'साधारण ज्येष्ठा', तदनंतर 'दक्षिण की ज्येष्ठा- कनिष्ठा, फिर सठ नायक की जेष्ठा, सट की कनिष्ठा, धृष्ट की ज्येष्ठा, धृष्ट की कनिष्ठा- अादि का वर्णन किया है। पति के प्रेम-परिमाण के अनुसार स्वकीया नायिका के 'ज्येष्ठा-कनिष्ठा' रूप दो-भेद रीति-काल के प्राचार्यों ने किये हैं। इनका कहना है- नायक की कई विवाहित स्त्रियाँ होने पर जिस पत्नो पर उसका अधिक प्रेम हो उसे 'ज्येष्ठा' और न्यून प्रेम वाली 'कनिष्ठा' कही जायगी, यथा - . पा०-१. (भा० जी०) (प्र.)(३०) जी में अब दास, सखीन । २. (प्र.) (40) गृह...। ३ [प्र०] [भा० जी०] [३०] घटि है, जुपै...।।

  • नि० (मि० दा०) पृ० २५,७२ । क० को० त्रि०] पृ० ४०४ [१] । ७०

ना० मे० [मी०] पृ० २६०, २६५ । न० सं० [हफी०] १० ७२, ६० ।