पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

CE काव्य-निर्णय बीर' रस बरनन 'सवैया' जथा- ऋद्ध दसानन बीस भुजॉन' सों, लै कपि-रोछ अनी सर बट्टत । लच्छन तच्छन रत्त किए हग, लच्छ बिपच्छंन के सिर कट्टत ॥ मार, पछार, पुकार दुहुँ दल, रुंड -मपट्ट, दपट्ट लपट्टत । दौरि लरें भट-मथुन लुट्टत, जोगिन खप्पर ठहॅन-ठट्टत ।। वि०-'अत्यंत उत्साह से 'वीर-रस' की उत्पत्ति कही गयी है और इसके चार भेद-'दान-वीर, धर्म-वीर, युद्-वीर और दया-वीर साहित्य-सृजेताओं ने कहे हैं। इन चारों का स्थायी भाव उत्साह ही होता है। अस्तु, जिन भावों से वैक्रांत वा वीरता प्रकट हो वह 'वीर-रस' । इन-दान, धर्म, युद्ध और दया वीरों में विशेषता 'युद्ध-वीर' की ही मानी जाती है, क्योंकि दया-वीर को दया-पात्र की रक्षा के लिये, धर्म-वीर को धर्म-रक्षा के लिये अनिवार्य रूप में कभी-कभी झगड़े मोल लेने पड़ते हैं-- युद्ध में उतरना पड़ता है। इसी प्रकार दान और कर्म में भी युद्ध की संभावना रहती है, अतः इन सबसे विशेष युद्ध-वीरता ही मानी गयी है। इन चारों- दान, धर्म, युद्ध और दया वीरों का भूषण कवि ने एक छंद में बड़ा सुदर वर्णन किया है, यथा- दौन-सँमें द्विज देखि मेरु-हैं, कुबेरुहू की, संपति लुटाइबे कों हियो ललकत है। साहि के सप्त सिबसाहि के बदन पर सिब की कथान में सनेह झलकत है। 'भूपन' जहाँन-हिंदुवाँन के उबारिबे कों, तुरकान मारिबे कों बीर बलकत है। साहिन सों लरिबे की चरचा चलत भाँन, सरजा के हगन उछाह छलकत है।" वीर-रस का देवता-“इद्र वा शशि' और वर्ण 'गौर' कहा गया है । पा०-१, प्रतापगढ़, संमेलन प्रयाग की हस्तलिखि प्रतियों में यह छंद 'रोदरस के उदाहरण में उद्धृत किया गया है। साथ ही वेंकटेश्वर की मुदित प्रति में भी। २. [सं० प्र०].. बीस कृपानन, लै .. | ३. [३०] रिच्छ । ४. [सं० प्र०]..... लै सर अच्छन, लच्छ .। ५. [सं० प्र० ] दौरि...। ६. [प्र. ] [ भा० जी० ] [३०] रुढ...।