पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१३४

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काव्य-निर्णय अथ भाव-सांति-भावाभास लच्छिन जथा- भाव-सांति सो है जहाँ, मिटत भाव-अनयास । भाव जु अनुचित ठौर है, सोई 'भावाभास' । वि०-'जब किसी एक भाव की व्यंजना हो रही हो, उसी समय दूसरे 'विरुद्ध भाव की व्यंजना होने पर प्रथम भाव की समाप्ति में जो चमत्कार होता है, उसे-'भाव-शांति' कहते हैं। इमी प्रकार जब अनौचित्य रूप से भाव का वर्णन होता है अथवा जहाँ भाव रसाभास का अंग बन जाता है, अर्थात् जहाँ भावों का वर्णन अनोचित्यपूर्ण हो, या जहाँ जो भाव प्रकट न होना चाहिये वहाँ वह भाव व्यक्त कर देने से 'भावाभास' कहा जाता है।" ____ यहाँ एक बात ध्यान में रखने को है, वह यह कि जबतक व्यभिचारी-भार किसी रस के पोपक होते हैं, तभी तक उनकी व्यभिचारी संज्ञा है और जब वे प्रधान प्रतीत होते हुए भाव-अवस्था को प्राप्त होकर किमी दूसर अ.भास के अंग बन जाते हैं तब वे 'भावाभास' कहे जाँयगे । भाव-सांति उदाहरन 'दोहा' जथा-- बदन-प्रभाकर लाल लखि, बिकस्यौ उर अरविंद । कहौ रहे क्यों निसि-बस्यौ, हुतो' जो माँन-मलिंद ।। भावाभास उदाहरन दोहा' जथा- दरपन में निज छाँह-सँग, लखि पीतम को छाँह । खरी ललाई रोस की, ल्याई अँखियन माँह ।। अस्य तिलक इहाँ नायिका को नाहक को क्रोध-भाव ( नायक प्रति ) है, ताते भावाभास कहिऐ। अथ रसाभास बरनन 'दोहा' जथा- सुरा सुरादर तुब नजर, तू मोहिनी सुभाइ । अछकेन देति छकाइ है, मार मरेन को ज्याइ । अस्य तिलक इक नायिका बौहौत ( से ) नायकॅन को बस (अपने बस ) करै है, ताते 'रसाभास' है। पा०-१. ( भा० जी० ) सी...। २. ( ३० ) हुत्यो "। ३. (प्र०-३) आई।