पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१४४

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१०३ काव्य-निर्णय पुनः सवैया जथा- जो दुख सों प्रभु राजी रहें, तो कहौ' सुख-सिद्धिन दूरि बहाऊँ। पै ये निंद्य सुँनों निज स्रोन सों, कोंन सों कोंन सों' मोंन गहाऊँ। मैं या सोचि - बिसूरि -बिसूरि, करों बिनती प्रभु साँझ पहाऊँ। तीनहुँ लोक के नाथ समत्थ हौ, मैं-हीं अकेलौ अँनाथ कहाऊँ ॥ अस्य तिलक इहाँ निंदा सुनिबे को कोप की सांति, चिंता भाव को अंग है। अथ भाव संधिवत अलंकार वरनन जथा-- भाव-संधि अँग होइ जो, काहू को अनयास 'भाव-संधिबत' तिहिं कहें, पंडित बुद्धि-बिलास ॥ वि०-"जहाँ दो भावों का एक साथ ही प्रादुर्भाव दिखलाया जाय, वहाँ भाव-संधि अलंकार होता है । यहाँ चंद्रालोक-कार का कहना है- "भावानुमुदयः संधिः शबलत्वमिति त्रयः । अलंकारानिमान्सप्ल केचिदाहुर्मनीषिणः ॥" अस्य उदाहरन 'दोहा' जथा-- पियपराध तिल-आध तिय साध अगाध गर्नेन । जॉन लजोंहे होंइगे, सोंहे करत न नेन ॥ अस्य तिलक यहाँ उत्तमा नायिका में क्रोध, अबहित्य, उतकंठा औ लज्जा की संधि अप- रांग (अन्य के मंग) हैं। अथ भावोदयवत अलंकार बरनन जथा-- रस-भावादिक को जु कहुँ भाब-उदै अँग होइ । 'भावोदेबत तिहिं कहें, 'दास'सुमति सब कोइ।। वि०-"जहाँ भानों का उदय होना मात्र दिखला कर रस पाक किया जाय-हो जाय, वहाँ 'भावोदयवत' अलंकार कहा जाता है। पा०-१. [सं० प्र०] [र० सां०] तौ चहों सुख-सिद्धिन सिंधु ..बहाऊँ । २. [भा० जी०] [३०] निंदा...। ३. [प्र०-३] कों...। ४. [भा० जी०] यहाँ ऊ। ५. [स० प्र०] [३०] समर्थ...। ६. (प्र०) पिय-अपराध अगाध तिय, साथ सुनेक गर्नेन । ७. (सं० प्र०) (३०) ललोहे । क. (३०) भावोदयवत...। (प्र०) भाष-उदै...। ६. (सं० प्र०) कवि पंडित सब...। र० सा० (चिंता-भाव कयन)दास, पृ०-२७।