पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१४६

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१११ काव्य-निर्णय वि०-"दासजी ने यहाँ श्राटों नायिकायों के वर्णन में प्रोषित-पतिका का सबल अंग कहा है, जो ठीक नहीं हैं । अपितु यहाँ मातों नायिकाओं का वर्णन 'प्रोषित्पतिका' का सबलवत् अंग वणन है । रस-कुसुमाकर के रचयिता ने दासजी के इस छंद को 'प्रौढ़ा कलहांतरिता' (नायक का अपमान कर पुनः पछताने वाली) नायिका के उदाहरण में उद्धृत किया है। "प्रथम कळू अपमान कारि पिय को फिरि पछिताइ । 'फलहांतरिता' नायिका, ताहि कहत कबिराई ॥" पुनः उदाहरन 'कवित्त' जथा-. सुमरि सकुचि न थिरात संक' त्रसित औ तरकि२ उग्र बाँन सु गिलॉन हरखाति है। उँनिदति अलसाति सु' अति सधीर चोंकि, चाँहि चिंत स्रमित सगर्व इरखाति" है। 'दास पिय-नेह छिनछिन भाव बदलति, स्यामाँ स बिराग दोन मति कै मखाति है । जलपति, जकति , कहरति, कठिनाति मति, मोहति, मरति, बिललाति, बिलखाति है। अस्य तिलक इहाँ प्रबास-बिरह के तेतीसों विभचारी वियोग सिंगार के सबलवत् भंग ह, ताते य ह सबलवत अलंकार को उदाहरन है। संमेलन-प्रयाग की प्रति में इस छंद के चरणों में निम्न परिवर्तन भी मिलता है । यथा- "सुमर सकुच न थिरात, संक, त्रसित, तरकि, उग्र बाँन स गिलाँन मति हरखात है। 'दास' पिय-नेह छन-छन भाव बदलति, स्यामाँ स बिराग दीन मति कै भखाति है। पा०-१. [V० नि०] संकि । २ [V० नि०] तरति...। ३. [१० नि०] उनीदति...। ४. [प्र०] सो अति (३०) (शृ' नि०) सोवति... ५.(० नि०) अनखाति है । ६, [व] [प्र० मु०] छैन-बैन... ७. [प्र०] [0]...जकाति कैहराति...!

  • ० नि० [दास] पृ० २१, २३६ ।