पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१५२

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काव्य-निर्णय ११७ वि०-"जैसा पूर्व में कहा गया है कि अर्थातर या अत्यंत तिरस्कृति ध्वनि -जहां वाच्यार्थ का सब प्रकार से तिरस्कार किया जाय वहाँ होती है और इसके 'पद-गत तथा 'वाक्य गत' दो भेद कहे जाते हैं । यह ध्वनि प्रयोजनवती लक्षण- लक्षणा के साथ रहती है, क्योंकि वहाँ वाच्यार्थ का अत्यंत तिरस्कार किया जाता है, यहाँ भी लक्षण-लक्षणा की भाँति वाच्य के अर्थ को एकदम त्याग दिया जाता है । साथ ही यह ध्वनि प्रायः वक्रोक्ति और आक्षेप-अलंकारों में तथा खंडिता और अन्य-संभोग दुःखिता, जिसे अन्य सुरति दुःखिता नायिका भी कहा नाता है, के कथनों-वचनों में होती है, देखिये दासजी का निम्न उदाहरण ।" अस्य उदाहरन जथा-- सखि,' हों लई न सोच तब, तू किय मो सब काँम । अब आँनी' चित सुचितई, सुख पइहों परनाम ।। अस्य तिलक इहाँ ये 'अन्यसंभोग दुःखिता नायिका' की उक्ति सखी वा दृती के प्रति है, साते उलटी सब बातें नायिका कहति है। वि० . "अन्य संभोग दुःखिता नायिका अन्य स्त्री (सखो वा दूतो) के शरीर पर निज पति के रति-चिह्नों को देखकर दुखित होने वाली जिसका पूर्व में उल्लेख हो चुका है कहते हैं, अतएव उक्त नायिका का उदाहरण "ईश्वर" कवि का रचा विशेष सुंदर है, यथा-- नाँतो नभचर को बिचारु चारु चंद कुजै, संजुत बिनोद मोद गोद बैठौं है । संभु-सीस भूषन बिराजै संभु-सीस-ही पै, सोतो सब जोग है सु लोगन बिचार्यो है ॥ 'ईसुर' कहत पै अजोग इतनों-हीं तिय, भोर एक कठिन कठोर पँन धार्यो है । मधुप कहाइ कुल-कालिमा लगाइ हाइ, बारिज-बिहाइ भाइ बिद्दुम विदारयों है।" - सं० (सरदार कवि) पा०- १. (प्र०) (प्र० मु०) सखि, तू नेक न सकुचि मन, किए. सबै मम...। (३०) सखी, हाल इन सोच तुव, । २. (३०) आनहि...। (प्र०) आंने...। ३. ( प्र० नु० ) (20) है...।