पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१५४

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काव्य-निर्णय ११६ पुलकावलि पेखि कपोलॅन पै, खिसियाइ,' लजाइ मुरी अरि के। लखि प्यारे बिनोद सो गोद-गयो, सुलह्यौ सुख मोद हियौ भरि कें॥* वि०-"दासजी का यह छंद 'अमरुक' कृत संस्कृत की निम्न-लिखित सुमधुर सूक्ति का अनुवाद है, यथा- "शून्यवास गृहं विलोक्य शयनादुरथाय किंचिच्छनैः- निद्राव्याजमुपागतस्य सुचिरं निवर्य पत्युमुखम् । विश्रब्धं परिचुंब्य जात पुलकामालोक्य गंडस्थलीम्- लज्जा नम्रमुखी प्रियेण हसता बालाचिरं चुंविता ॥" -अमरुशतक, पर इन दोनों ( दासजी की और अमरुक की) सूक्तियों से विहारीलाल का यह दोहा बहुत ऊपर चढ़ गया है, जैसे- "में मिसहा सोयो समझि, मुख-चूम्यों ढिंग जाइ । हँस्यो, खिसाँनी, गर-गह्यो, रही गरें लपटाइ ॥" अय असंलच्छक्रम व्यंग 'दोहा' जथा- होत लच्छम ब्यंग में, तीन-भाँति की ब्यक्ति । सब्द-अर्थ की सक्ति है, औ सबदारथ-सक्ति ॥ वि०-"जहाँ वाच्यार्थ और व्यंग्याथ का पौर्वापर्य-क्रम भले प्रकार-सुदर रीति से प्रतीत हो वहाँ 'संलपक्रम व्यंग्य' कहा जाता है और इसके-शब्द- शक्ति से, अर्थ शक्ति से और शब्द-अर्थ-शक्ति से तीन भेद कहे गये हैं। ध्वन्यालोककार दो-ही भेद मानते हैं, यथा - "क्रमेण प्रतिभात्यात्मा योऽनुस्वानसंनिभः । शब्दार्थ शक्ति मूलस्वात्सोऽपि द्वैधा व्यवस्थितः ॥ -१० पृ० २०,२०। इन्हें शब्दशक्ति-उद्भव अनुरण-ध्वनि, अर्थ-शक्ति-उद्भव अनुरण-ध्वनि और शब्द तथा अर्थ उभय शक्ति उद्भव अनुरण-ध्वनि भी कहते हैं। शब्द- शक्ति मूल ध्वनि भो वस्तु और अलंकार संयुक्त दो भेदों में विभक्त मानी जातो है।" पा०-१.(प्र०-३) खिसिमाई, लजाई .. । २. (र० सा० ) लरि... । ३. (प्र०-३) प्यारी... १४. ( भा० जी०) (३०) (प्र. मु०) उँमछौ । ५. (२०-सा० ) मुद .. । ६. (र० सा०) हिऐ ...। ७ (प्र०-३).."श्री, पुनि...।

  • र० सा० (दास ) पृ० २४ ।