पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१५)

ब्रज-माहात्म्य चंद्रिका, छह प्रकाश (अध्याय) में बटा ग्रंथ है । पत्र संख्या-७३ और संबत् १८०५ वि० का लिखा हुआ है,यथा:

    "सिब-मुख ख• बसु सुधानिधि, संवतसर आधार ।
     कार्तिक कृष्ण चतुरदसि, ग्रंथ लिख्यौ रबिबार ॥"

यह पुस्तक स्व० पं० 'मयाशंकर' याज्ञिक अलीगढ़ की विभूति है, जो अब उनके भाईयों-जीवनशंकर श्रीर भवानीशंकर की दानशीलता से ना० प्र० स० काशी के 'अचार्य-भाषा पुस्तकालय' की शोभा बढ़ा रही है। पुस्तक, अलीगढ़ में ही हमारे देखने में आयी थी। स्व. याशिक जी से उक्त पुस्तक के दास-कृत होने में विवाद भी हुया था, जो आज याद नहीं। उस समय पुरसक पूर्ण थी और भरतपुर (मथुरा) से उन्हें प्राप्त हुई थी। पुस्तक-रचना साधारणतः अच्छी है, फिर भी उनके ग्रंथ-रस-सारांशादि को देखते हुए कहना होगा कि यह रचना उन जैसी सुष्ट नहीं है । साथ ही एक बात और, वह यह कि दासजी कृत सभी 'रस-सारांशादि कृतियों में उद्धत छंदों का बहुत कुछ आपस में विनमय हुआ है। उसके छंद इसमें और इसके छंद उसमें उलटे-पलटे गये हैं । इस पुस्तक में कोई ऐसा विपयर्य देखने में नहीं पाया, अतः इसके दास कृत होने में शंका होती है और जी इसे आप-कृत मानने में हिचकता है। यह छंद-विनयम की बात दासजी पर ही लागू नहीं होती, अपितु आप से पूर्व और पर के सभी रीति-काल के आचार्यों के प्रति लागू होती है, जिन्होंने एतत्संबंधी ग्रंथों की रचना की हैं। दास जी कृत कहा जाने वाला 'पंथ-पारख्या' भी स्व० याशिक जी की निधि थी, जो अब उक्त सभा की है । पृष्ठ संख्या छह ६ है ।' प्रथ में दादू-पंथियों के सिद्धांत और नियमों का वर्णन है। पुस्तक खंडित है और दासजी कृत होने में संदेह- प्रद है । कारण पुस्तक की भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव यत्र तत्र स्फुट है, यथा :

   "माया, मोह कर सब दूरि, 'पाँचनै' इंद्री राषै पुर।
   'भिक्षा कारण हठ न कराई, 'अण बंछया' मा सो खाई॥

यह उदाहरण मध्य पुस्तक का है, अस्तु, कोमांकित शब्द यह विचार उत्पन्न करते हैं कि "हम दास-प्रयुक्त नहीं हैं......।

वर्ण-नियं अथवा कायस्थ-वर्ण-निर्णय दास जी कृत होने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता, केवल डा. माताप्रसाद गुप्त एम० ए० की पुस्तक 'हिंदी- पुस्तक साहित्य के पृ० ५३६ पर मिलता है। यह सूचना उन्होंने 'यू० पी० गजट' २६ मई, स० १६१५ में प्रकाशित तिमाही रिपोर्ट के अनुसार दी है।.,

१ खोजरिपोर्ट (ससेस.१६४६) मा.प्र.स काशी (अप्रकाशित),