पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१६२

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१२७ काव्य-निर्णय प्रौढोक्ति बस्तु ते वस्तु व्यंग जथा- 'दास' के ईस जबै जस राबरौ, गावती देव-बधू मृदु-तॉनन । जातो कलंक मयंक को मूद, औ घाम ते काहू सताबतो भाँन न । सीरी लगै सुनि चोंकि चितै दिग-दंतिक' कै तिरछौ दृग-ऑनन । सेत सरोज लगै के सुभाइ, घुमाइ के सूड' मलै दुहुँ कॉनन ||* अस्य तिलक इहाँ (कबि को कथन है कि) तिहारी कीरति सरग श्री दिगंत हूँ में पोंहची सो सीतल-उज्जल है, ये कवि प्रौढोक्ति बस्तु ते बस्तु ब्यंग है। वि०-यहाँ दासजी ने प्रथम 'कवि-प्रौढोक्ति'-सिद्धवस्तु यह बतलाई कि यश श्वेत है-शीतल है और स्वर्ग तथा दिगंत तक फैला हुआ है, उस यश को देख-सुनकर दिग्गजों (हाथियों) को ईर्ष्या होती है कि हमारे दाँत सफेद होते हुए भी यश जैसे श्वेत नहीं है, यह द्वितीय वस्तु व्यंग्य हुई, इसी से वे सूड घुमा-घुमाकर अपने कानों को मला करते हैं-इत्यादि........." पुनः उदाहरन 'दोहा' जथा- करत प्रदच्छन बाड़बहि, आबत दच्छिन-पोंन । बिरहिन-बपु बारति बरहि, बरजनवारो कोंन । अस्य तिलक इहाँ तिहारे बिरह मरति है, ये बस्तु ते बस्तु ब्यंग है। वि.--"अर्थात् विरह-संताप से व्यथित बाला विरहणी को वसंत की, दक्षिण की शीतल पवन भी बड़वाग्नि को छूकर आती हुई (सी अति तप्त ) जान पड़ती है, यह वस्तु से वस्तु व्यंग्य है।" वसंत-विभूषित पवन पर कवि सैय्यद गुलामनवी 'रसलीन' की दो सूक्तियाँ भी देखिये, किस नाज से श्राप कहते हैं- _ "सरवर-माँहि भन्हाइ भरु बाग-बाग बिरमाइ । मंद मंद भावत पळून, राजहंस के भाइ ॥ पा०-१. (३०) जगै...। २. (प्र०-३) मुंदि...। ३. (प्र०)...दंतित...। (व्यं० म०)... दति तक तिरळे...। (३०)...दंतिक के तिरछे...। ४. (३०) सुहाइ...। (व्य० मं०) सेत सरोज लै लै के सुभाइ । ५. (३०) सुइ...। ६. (प्र०-३) दोउ...।

  • , व्य० म० (ला० भ० दी०) पृ० ३६ 1 1, 1० म० (ला० भ० दी०) पृ० ४१ ।