पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय 'दास' लहै वो क्यों अबकास, उसास रहे नभ-और अमेरको। है कुसलात इती इहि' बीच, जुमींच न पावत पाबत नेरयौ ॥ अस्य तिलक इहाँ हु कायलिंग अलंकार करि के बिसेसोक्ति अलंकार व्यंग है। अथ सब्दार्थ-सक्ति बरनन जथा- सब्द-अर्थ दुहुँ सक्ति मिलि, व्यंग कदै अभिराँम । कबि कोबिद तिहिं कहत हैं, 'उभै सक्ति' इहि नाम । उदाहरन कबित्त जथा- सीवाँ" सुधरम जाँनों परॅम किसाँनों माधौ, पाप-पुज" भाजे भँमि स्याँमारुन-सेत में । देसी-परदेसी बबें हेम, हय, हीरादिक, केस, मेद, चीरादिक स्रद्धा-सँम हेत में । परसि हिलोर के हिलोरें पैहले-हीं 'दास,' रास च्यारि फलॅन की अमर-निकेत में । फेरि जोति देखिबे कों हरबर दाँन देति, अदभुत गति है त्रिबेंनी जू के खेत में । अस्य तिलक इहाँ (शब्दार्थ) उभै सक्ति ते रूपक, समासोक्ति को संकर करिके अतिसयोक्ति अलंकार ब्यंग है। वि०-"अर्थात् दासजी ने यहाँ-जोत, हर, बरदा (बरध-बल) और खेत शब्दों के श्लिष्टार्थ-बल से त्रिवेणी (गंगा) के क्षेत्र को खेत का रूपक दिया है, जिमसे 'उदात्त' और अतिशयोक्ति अलंकार व्यंजित होते हैं। यदि इन श्लिष्ट शब्दों को पर्यायवाची शब्दों में बदल दिया जाय तो अभीष्ट रूपक बदल जायगा। इम लिये यहाँ "शब्दार्थ उभय शक्ति' व्यंग्य ध्वनि है । उद्दात्त, यथा- पा०-१. (प्र०) (सं० प्र०) (प्र० मु०) अमेरे । (३) अमेरै । २. (३०) पहि। ३.(प्र०) (सं० प्र०) (प्र० मु०) नेरे। (३०) ने। ४. (प्र०-३) सीमा...। ५. (सं० प्र०) (३०) जंतु...। ६. (अ० स०) सीमा सुधरम जॉन, परम किसान मायो पाप-जंतु भागे भैम स्याम-भरुन सेत में। ७. (प्र०) परसि हिलोर के हिलोरे भले लेत दास । (सं० प्र०) पर सीख हलोरे के हलोरै...। (३०) परसी हुलौरे के हलोरै... प. (व्यं० म०) हर बरदान...। ___* संमेलन प्रयाग की प्रति में इसके बाद-"इति अर्थ शक्ति । भव शब्दार्थ-शक्ति लक्षण दोहा यह और लिखा मिलता है। व्यं० म० (ला० भ० दी०) १०४५ ।