पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१६८

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काव्य-निर्णय १३३ "प्रति संपति बरनत जहाँ, तासों कहत 'उदात' । कै भाँन सों लखाइऐ बड़ी आँन की बात ॥" अथ एक पद-प्रकासित ब्यंग बरनन जथा- पद-सँमूह-रचनाँन कौ, बाक बिचारौ चित्त । तासु ब्यंग बरनों सुनों, 'पद-बिंजक' अब मित्त ।। छंद-भरे में एक पद धुनि-प्रकास करि देइ । प्रघट करों कँम ते बहुरि, उदाहरँन सब तेइ ।। अथ अस्थांतरसंक्रमित बाच्यप्रद पद-प्रकास धुनि जथा- उदाहरन जथा- मुंदर, [न-मंदिर रसिक, पास खरौ ब्रजराज । आली, कोंन सयाँन है, माँ न-ठाँ निबौ 'आज' ||* अस्य तिलक इहाँ (केवल) 'आज' सब्द ते घात (सुदर मिलने के समय) को समें प्रका- सित होति है, ता ते एक पद-प्रकासित व्यंग है। वि-, "जहाँ वाच्यार्थ अर्थांतर में संक्रमण करता है-बदलता है, वहाँ यह ऊपर लिखी ध्वनि होती है, जो दोहा के केवल 'अाज' शब्द से व्यंजित है। कविवर 'देव' निर्मित निम्नलिग्वित छद, जो दासजी के दोहे की विस्तृत टीका-जैसा कहा जा सकता है, एक पद-गत वा शब्द-गत ध्वनि का सुंदर उदाह- रण है, यथा- "जोरति न दीठि रूसि बैठी हँसि पीठ दै, कोंन यै 'देव' स्याँम साँमुहें बहन है। जोबन नबेली, अलबेली तू समझि सोचि, सौतिन गुमाँन-भरी बातें न कहन दै। ठगढ़ों पिय-पास, मन मिलबे की आस धरें, ताहि रुख रूखौ ना बियोग ते दहन है। होइ के निसंग, भरि अंक मनमोहन कों, 'आज' रात मॉन को अमानत रहँन दै॥ - सं० (सरदार) मा०-१. (प्र०-३) बरमॅन सुनों...।