पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय एक उर्दू का शेर भी देखिये, इसमें भी एक लज्फ़ 'अज़ीज़' ने, जो शायर का नाम भी है, वही बात पैदा कर दी है, जैसे- "बातों-बातों में किसी ने कह दिया मुझसे 'अज़ीज' । जिंदगी की मुश्किलें दम-भर में आसाँ हो गई॥" अथ अत्यंत तिरसकृतबाच्यप्रद पद-प्रकास धुनि- अस्य उदाहरन जथा- भाल, भृकुटि, लोचॅन, अधर, हिऐं हिए की माल । छला छिगुनियाँ-छोर कौ, लखि सिरात दृग लाल ||* अस्य तिलक इहाँ (खंडिता नायिका नें ) 'सिरात' सबद ते जरियौ बिंजित करिके ( अपने नायक को) अपराध प्रकास्यौ ताते प्रति तिरस्कृत पद-गत बाच्य धुनि भई। व०-'जहाँ वाच्यार्थ का एक दम तिरस्कार किया जाय, वहाँ 'अत्यंत- तिरस्कृत वाच्य ध्वनि' होती है। जैसे दासजी द्वारा प्रयुक्त 'सिरात' शब्द से शीतल होना अर्थ न मान कर अधिकाधिक 'जलना' ही अर्थ सापेक्ष है। अब्दुलरहीम खानखाना का यह 'बरवै' भी अत्यत तिरस्कृतवाच्य ध्वनि का सुदर उदाहरण है, जैसे- "अहो, सुधाधर प्यारे, नेह-निचोर । देखन-हीं को तरसे, नेन-चकोर ॥" -बरवै नायिका-भेद यहाँ भी नायिका, नायक को सुधाधर बतलाकर--उसे संबोधित कर उस ( नायक ) की कुटिलता-ही अधिक व्यंजित करती है, जब कि उस 'सुधाधर' का वाच्यार्थ चंद्रमा ( सब को प्रसन्न करनेवाला ) है, पर इम वाच्यार्थ की सर्वथा उपेक्षा कर दी गयी है।" असंलच्छक्रम रस-व्यंग उदाहरन कवित्त जथा- जाति है तू गोकुल गुपाल हूपै जइबी नेक आपनी जु" चेरी मोहिं जानती तू सही है। पा०-१. (प्र०-३) हियो। २. (सं० प्र०) (३०) जाती है तू... । (प्र.) (प्र० मु० ) जाति हो जौ गोकुल .. । ३ (सं० प्र०) जैए... । (वे. ) जैवे...। (प्र०-३) जैयो... | ४. (स०प्र० ) जो... । ५. ( भा० जी० ) जॉनति ।।

  • , व्यं० मं० (ला० भ०) पृ० ४८ ।