पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१७२

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काव्य-निर्णय १३७ सुतःसंभवी अलंकार ते बस्तु ब्यंग जथा'- हम-तुम तन द्वे, प्रॉन इक, आज फुरयौ बलबीर । लग्यौ हिऐं नख राबरे, मेरे हिय में पीर ।।* अस्य तिलक इहाँ प्रसंगति अलंकार ते आज तुम पर-स्त्री सों बिहार कियौ सो नई भई यै अलंकार ते बस्तु ब्यंग है। वि०-'यहाँ एक पद प्रकाशित वस्तु से अलंकार 'असंगति' स्पष्ट है। 'श्राज' शब्द विशेष व्यंजक है और नायक की सदोपतारूपी वस्तु व्यंग्य है, जो खंडिता नायिका की नायक-प्रति उक्ति 'असंगति अलंकार से पुष्ट है। असंगति- अलंकार- "हेतु अनत-हीं होत जह, काज अनत-ही होइ । ताहि 'असगति' कहत हैं, भूषन कबि सब कोइ ।।" और उदाहरण- “ग उरझत, टूटत कुटुंम, जुरत चतुर-चित प्रीति । परत गाँठ दुरजंन-हिऐ, दई नई ये रीति ॥" -विहारो, सुतःसंभवी अलंकार ते अलंकार व्यंग जथा- लाल, तिहारे गँन कौ, हाल कह्यौ नहिं जाइ । साबधान रहिए तऊ, चित्त-बित लेत चुराइ ।। । अस्य तिलक इहाँ रूपक-बिभावना अलंकार करिके चोर तेरौ यै अधिक है, ताते ब्यतिरेक- अलंकार ब्यंग है। वि० -दासजी की यह सूक्ति 'एक पद प्रकाशित अलंकार से अलंकार व्यंग्य' में हैं, क्योंकि विभावनालंकार सष्ट है, किंतु सावधान रहने पर भी चित्त- रूप बित्त को चुरा लेने से व्यंजित होता है कि वह नायक अन्य चोरों से बढ़ा- १. यहां संपूर्ण ह० लि. प्रतियों में उक्त शीर्षक ही लिखा मिलता जो ठीक नहीं हैं, यहाँ......."बस्तु ते अलंकार ग्यंग' होना चाहिये, क्योंकि पीछे के दोहा में यह शीर्षक आ चुका है। पा०-२. (भा० जी०) की, हाल कही नहिं । (प्र०) (३०) हाल न बरन्यों... । (सं० प्र०) की, चाल कही नहिं"। at i० म० (ला० स० दी०) पृ० ५१ । सं० भा० (विहारी-५० सिं०) पृ० १५२ ।