पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१७४

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१३६ काव्य-निर्णय सर-सरतान को न सूखत लगैगी बार, एसी कछु जुलमिन ज्वाला बढि भावेगी। ताके तैन-ताप की कहों मैं कहा बात, ____ मेरे गात-ही छिए ते तुम्हें ताप चहि आवैगी ॥" कवि-प्रौढोक्ति अलंकार ते अलंकार ब्यंग जथा- हरि, हरि, हरि' ब्याकुल फिरै, तज सखाँ न' को संग । लखि ए तरल कुरंग-दृग, लटकन मुकत सुरंग ।।* अस्य तिलक इहाँ सुरंग पद ( बस्तु ) ते तद[न अलंकार ब्यंग है, आसक्त ह्र वौ बस्तु ब्यंग है, ऐसौई तेरौ काम है यै दूती नायिका प्रति जनायो। वि०-"दासजी की यह कृति पाठ-भेद से दो प्रकार की-सवी वा दूती की नाविका प्रति अथवा नायक प्रति उक्ति और दो शीर्षक, विविध प्रतियों के आधार स्वरूप मिलते हैं । पाठ भेद नीचे पाठांतर के स्थान पर प्रस्तुत हैं, उक्ति ऊपर लिखी है और शीर्षक-'कवि प्रौढोक्ति अलंकार से अलंकार व्यंग्य' अथवा 'पुनः यथा, अर्थात् कवि-प्रौढोक्ति वस्तु से अलंकार व्यंग्य” भी मिलता है । दोनों अर्थों में-शार्पकों में, 'कुरंग-ढग' से लुप्तोपमा (वाचक-धर्म लुप्ता) और 'सुरंग' शब्द से तद्गुण-अलंकार कवि-प्रौढोक्ति से विभूषित व्यंग्य है । लाला भगवान दीन जी ने- "हरि, कहि-कहि ब्याकुल फिरै तजि सखियन को संग" पाठ मान कर व्यंग्याथ मंजूषा' में 'इ' (कवि प्रौढोक्ति में अलंकार से वस्तु) यह शीर्षक देकर लिखा है कि "हे चंचल मृगलोचनी, देख तो, तेरा यह लटकन का मोती तेरे अोठों के रंग से लाल है, अर्थात् तू बड़ी सुंदर है । सो तू ऐसी सुंदर होकर हरि-हरि पुकारती सखियों का संग छोड़ अकेली ब्याकुल फिरती है । व्यंग्य यह कि तू हरि पर आसक्त है, यह वस्तु 'व्याकुल' शब्द से व्यंजित है। 'कुरंग-दृगी' में लुप्तोपमा और 'सुरंग' पद से तद्गुण अलंकार है ही, यही कवि-प्रौढोक्ति है" और यदि यहाँ विशेष प्रतियों द्वारा मान्य मूल पाठ के अनुसार उक्त विशेषताएँ दिखलायी जाय, तो जरा-सा अर्थ में उलट फेर किया जायगा । तब वहाँ अर्थ होगा -"हे सखि, तेरे कुरंग-सदृश चंचल नेत्रों और नथ के लटकन का सुरंग- पा०-१. (व्य० म०) (प्र०-३) कहि...! २. (प्र०) (प्र०-९०) सखियन.... (वे) सखींन...।

  • , व्य० मं० (ला० भ० दी०) पृ०, ५३ ।