पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय १४५ वि०-"दासजी ने इस उल्लास में ध्वनि के मुख्य 'तैतीस' (३३) भेद मानते हुए श्रार्थी व्यंजना के विधान से प्रस्फुटित दस ध्वनियों का उल्लेख कर कुल 'तेतालीस' (४३) मुख्य मान कर इन्हें 'अलंकार' और 'संकर' के भेदोप- भेद-द्वारा अनंत कहा है । ध्वनि के प्राचार्यों ने भी प्रथम इक्यावन (५१) भेद- 'लक्षणा मूला अविवक्षित वाच्य ध्वनि' के-'अर्थातर संक्रमित वाच्य' और 'अत्यंत तिरस्कृत वाच्य' के 'पद' और 'वाक्य-गत रूप चार (४) भेद मान 'अभिधामूला'-'विवक्षित अन्य रवाच्य' के सेंतालीस (४७) भेद जो प्रथम 'असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य' के-“पद, वाक्य, प्रबंध, पदांश, वर्ण और रचना-गत" छह (६) भेद कह कर 'संलक्ष्यक्रमव्यंग्य' के प्रथम तीन (३) भेद "शब्द-शक्ति उद्- भव और शब्द तथा अर्थ रूप उभय उद्भव नाम के तीन (३) भेद कर, शन्द- शक्ति-उद्भव ध्वनि को 'वस्तु' तथा 'अलंकार' व्यंग्य में विभक्त कर पुनः इन्हें 'पद' तथा 'वाक्य-गत' भेदों में परणित किया है । इसके बाद 'अर्थ-शक्ति उद्भव ध्वनि' को प्रथम-"स्वतःसभवी, कवि-प्रौढोक्ति, कवि निबद्धपात्र प्रौढोक्ति" भेदों के चार (४) भेद-"वस्तु से दस्तु, वस्तु से अलंकार, अलंकार से वस्तु और अलंकार से अलंकार” को 'प्रबंध-गत, वाक्य-गत' और 'पद-गत' मान कर सेंतालीस (४७) भेद किये हैं । इस प्रकार ध्वनि के संपूर्ण इक्यावन (५१) भेद हुए। इन शुद्ध-भेदों को परस्पर एक के दूसरे के साथ मिलाने पर दो हजार छह सौ एक (२६०१) मिश्रित भेद होते हैं। इन दो हजार छ सौ एक को तीन प्रकार के संकर, यथा-'संशयास्पद, अनुग्राह्य-अनुग्राहक, एकन्यंजकानुप्रवेश (संकरों) को संसृष्टि के साथ गुणन करने पर दस हजार चार सौ पचपन (१०४५५) मेदों का कथन मिलता है, जिन्हें 'दास' जी ने अनंत संज्ञा दी है। श्री मम्मटाचार्य ने भी ध्वनि की यही संख्या अपने 'कान्य-प्रकाश' में स्वीकृत की है, यथा- "भेदास्तदेकपंचाशत् तेषांचान्योन्ययोजने । संकरेण त्रिरूपेण ससृष्टया चैकरूपया ॥ वेदखाब्धिवियच्चद्राः शरेषु युगखेदवः॥" अर्थात्-वेद (४), ख (०), अब्धि (४), वितु (०), चंद्र (१), शर (५), ईषु (५), युग (४), ख (०) और हद्र (१) के संयोग से १०४५५ की ही संख्या मानी गयी है।" "इति श्री सकल कलाधर-कलाधरबंसावतंस श्री महाराज- कुमार श्री बाबू हिंदूपति विरचिते 'काव्य-निरनए' धुनि-भेद-बरनोनाम षष्टमोल्लासः।"