पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१५४ काव्य-निर्णय कारन कोंन भयौ सजनी, मैं खेल लगै गुलियोन को फीको । काहे ते साँवरी-अंग छबीली, लगै दिन कैक ते ननन नीकौ ॥" __ --सुंदरी-तिलक ( भारतेंदु) सप्तम संदिग्ध व्यंग्य बरनन जथा-- होइ अर्थ सदेह में, इन्हें न कोऊ दुष्ट । सो सदिग्ध' प्रॉन है, ब्यंग कहें कवि पुष्ट । उदाहरन जथा . जैसे चंद-निहारिक, इकटक तकत चकोर । त्यों मनमोहन तकि रहति' तिय-बिंबाधर-शोर ।।. अस्य तिलक इहाँ सोभा-बरनिबौ औ चूमिबे की अभिलाषा दोऊ संदिग्व प्रधान हैं। वि०-"जहाँ प्रधान अर्थ संदेह-विशिष्ट हो, अर्थात् ऐसा निर्णय न हो सके कि यहाँ वाच्यार्थ में अधिक चमकार है अथवा व्यंग्याथ में, वहां संदिग्ध- प्रधान व्यंग्य कहा जाता है। दामजी के इस उदाहरण में नायिका का शोभा वर्णन नायक-हृदय में चुंबन की प्रबल इच्छा दोनों ही और नायक-हृदय की प्रबल चुबन-इच्छा का सखि-प्रति-सखि की उक्ति में संदिग्ध ( यह कि वह ) रूप में वर्णन है, जिससे संदिग्ध-प्रधान व्यंग्य है।" अष्टम असुदर ब्यंग्य बरनन जथा -- ब्यंग कढ़े बहु जतँन पै, बाच्य-अरथ-संचार । ताहि 'असुदर कहत कबि, करिके हिऐं विचार ॥ उदाहरन जथा- बिहंग-सोर सुन-सॅन सममि, पिछबारे के बाग। जाति परी पियरी खरी, प्रिया भरी-अनुराग ॥+ पा०-१.(प्र०)(प्र. मु.) (३०) पै नहि कोऊ .. । २. (प्र.) (प्र. मु०) (३०) (Di० मं० ) रहे " । ३. (प्र.)(३०) (प्र० मु०) तन पै...। ४. (३०) (प्र. मु०) पछवारे की"।

  • t, व्यं० मं० (ला० भ० दी०) पृ० ६६, ६७ ।