पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/१९४

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१५६ काव्य-निर्णय १५६ अपर मध्यम कान्य जथा- अलंकार-रस-बात गुन,' ए तीनों दृढ़ जाहि। घबर' ब्यंग कछु नाँहिं तौ मध्यम कहिऐ ताहि ।। छप्पय जथा- उपमाँ पूरन अर्थ, लुप्त: उपमान, अनन्वइ । उपमेयोपमा, प्रतीप, स्रौती उपमाँ चह॥ पुनि दिस्टांत बखाँनि, जाँनि अरथांतरन्यासहि । बिकसुर अरु निदरसनों," तुल्यजोगिता प्रकासहि ।। गँनि लेह सु प्रतिबस्तूपमाँ, अलंकार बारह बिदित । उपमान और उपमेइ को, है बिकार समझौ सुचित । वि०-"इस पाठवें उल्लास से दासजी ने ध्वनि' के अनंतर अलंकारों का वणन प्रारंभ किया है, जो अठारवे उल्लास तक गया है। उपमालंकार 'राज- शेवर' के मत से 'काव्य-संपदा का शिरोन है, क्योंकि अलंकारों में सादृश्य- मूलक अलंकार-ही प्रधान हैं। सादृश्य-मूलक अलंकारों में-उपमेयोपमा, अनन्वय, प्रतीप, रूपक, स्मरण, भ्रांतिमान् , संदेह, अपन्हुति, उपेक्षा, अति- शयोक्ति, तुल्ययोगिता, दीपक, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टांत, निदर्शना, व्यतिरेक, सहोक्ति, और समासोक्ति--श्रादि सभी अलंकार एक उपमा पर-ही निर्भर हैं। सादृश्य- ही उपमा है, इस लिये सभी साहित्य-सृजेताओं-अलंकार-श्राचार्यों ने 'उपमा' को अनेक अलंकारों का उत्थापक कहा है और यही दासजी ने इस छप्पय रूप छोटे-से छंद में वर्णन किया है। अतएव दासजी-द्वारा कहे गये इन अलंकारों में सादृश्य कही उक्ति-भेद से और कहीं व्यंग्य से जाना जाता है। उपमा के प्रति 'चित्र-मीभासाकार' की यह उक्ति कितनी सुंदर और अर्थ युक्त है- ___ "उपमैषा शैलषी संप्राप्ता चित्रभूमिका भेदात् । रजयति कान्य रगे, नृत्यती तद्विदां चेतः ॥" अर्थात् काव्य की रंगभूमि पर अनेक भूमिका-भेदों से-विविध रूपों से, उपमा रूप नटो संपूर्ण काव्य-मर्मज्ञों का मनोरंजन करती है।" पा०-१. ( भा० जी० (३०) (प्र०-९०) गुनि.... | २. (३०) और । ३.(प्र... मु० ' कविता पाहि" । ४. ( स० प्र०) अर्थी | ५. ( भा० जी० ) लुप्तोपमा.." । ६. ( मा० जी०)(३०)(प्र० मु०) अमेयोम । ७ (३० म०) विकसुरी निदरसन...। (२० प्र०) विकस्वरो निदर्सना... | . (सं० प्र०) सैम झिया"।