पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२०६

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काव्य-निर्णय १७१ का अाधार साम्य है, फिर भी उपमेय-उपमान के क्रम उलट-पलट देने से ही यह जाना जाता है। उपमा में उपमेय को उपमान के समान कहा जाता है और प्रतीप में उपमान को उपमेय तथा उसके सदृश, अथवा उपमान को उपमेय द्वारा तिरस्कृत किया जाता है-उसे होन बतलाते हुए उपमेय की अधिक उत्कृष्टता का वर्णन किया जाता है। व्यतिरेक अलंकार में भी उपमेय की उत्कृष्टता का प्रतिपादन किया जाता है, पर वहां उपमेय उपमान-क्रम प्रतीप जैसा उलटा नहीं जाता, अपितु उपमेय की उसके किसी गुण के कथन-द्वारा स्थापना की जाती है। साथ ही व्यतिरेक में साधर्म्य के साथ कुछ वैधर्म्यपना भी रहता है जो प्रतीय में नहीं, इसमें शुद्ध साधर्म्य-ही रहता है। अस्तु, प्रतीप पांच प्रकार का कहा गया है। प्रथम प्रतीप - "जब प्रसिद्ध उपमान को उपमेय कल्पित कर वास्तविक उपमेय के समान वर्णन किया जाय । इसी प्रकार द्वितीय प्रतीप वहां होता है, जहाँ उपमान को उपमेय बनाकर वर्ण- नीय उपमेय का तिरस्कार किया जाय। तृतीय प्रतीप-उपमेय को उपमान कल्पनाकर प्रसिद्ध उपमान का निरादर किया जाय । चौथा प्रताप वहाँ होता है जहां उपमान को उपमेय की उपमा के योग्य न कहा जाय - स्पष्टरूप से सत्य उपमान-उपमेय को उपमान कल्पित कर उसके समान कहा जाय, अर्थात् जब उपमेय के आगे उपमान को अयोग्यता सिद्ध की जाय और पांचवां 'प्रतीप' वहाँ- जहां उपमान को उपमेय के सम्मुख व्यर्थ-सा बहुत घटाकर वर्णन किया जाय, इस रोति से उपमान का तिरस्कार किया जाय कि जब उपमान का भार उपमेय ही उठाने में समर्थ है, तो उपमान की आवश्यकता... १ अर्थात् पांचवें प्रतीप में अादरणीय उपमान का निरादर ही प्रतीपता है--विलोमता है।। अलंकार प्राचार्यों ने प्रतीप को स्वतंत्र अलंकार के रूप में ग्रहण किया है, पर पंडितराज जगन्नाथ का कहना है कि यदि प्रतीप के भेदों को तनिक सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय तो प्रथम, द्वितीय और तृतीय प्रतीप के भेद उपमा के अंतर्गत समा जाते हैं। इसी प्रकार चतुर्थ-प्रतीप अनुक्त धर्मरूप से तो व्यतिरेक अलंकार का ही एक अंग है, फिर भी वह तथा पंचम प्रतीप एक प्रकार से श्राक्षेप अलंकार में समा जाते हैं-उसके अंतर्गत श्रा जाते ।" अथ प्रथम प्रतीप उदाहरन जथा- लख्यौ गुलाब-प्रसून में, मैं मधु-छक्यौ मलिंद । जैसी तेरे' चिबुक में, ललित' जु लीला-विंद ।। पा०-(०) तेरो... । २ (०)(प्र० नु०) ललिता लीला...! .