पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२११

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१७६ काव्य-निर्णय साक्षात् वाचक नहीं है। जिस प्रकार 'इवादि' शब्द जिस किसी के संम लगे रहते है - संबंध रखते हैं, उसे शब्द-शक्ति के कारण उपमान जान लिया जाता है यह निर्विवाद है, पर तुल्यादिवाचक शब्द जिससे संबंध रखते हैं, उसका उपमान होना जरूरी नहीं । इनके प्रयोग में उपमेय-उपमान का बोध अर्थ के विचार पर विलंब से होता है, यथा- "भार्थ्यामुपमानोपमेयनिर्णये विलंबे नास्वादविलंबः तद्भावः त्यमिति...।" - काव्यप्रकास उद्योत टीका मा २ स्रोती उपमा उदाहरन यथा- बुध अँगुनोंगुन'-संग्रहें, खोलें सहित बिचार । ज्यों हर-गर गोऐं गरल, प्रघटै ससि-हिं लिलार ॥ पुनः उदाहरन बथा- ज्यों महि-मुख-विष, सीप-मुख-मुकत स्वाँति-जल होइ । बिगरत कुमुख, सुमुख बँनत, त्यों-हीं अच्छर सोइ' ।। दूसरौ उदाहरन जथा- उपर-ही अनुराग लगे अर' अंतर को रँग हे कछु न्यारो। क्यों न तिन्हें करतार करै, हरुनी भर गुंजन लो मुख कारौ।। भीतर-बाहर-हूँ इक 'दास', वही रँग, दूजो जो नाँहि सँचारी। वे गुनबंत गरू है रहें, नित मूंगा ज्यों मोतिन-माँ हिं बिहारो॥ अथ सौतीमालोपमा धरॅम ते जया - 'दास' नि मॅनि सों ज्यों पंकज तरनि सो. ज्यों वामसी रजनि सो त्यों चोर उँमहत है। मोर जलघर सों ज्यों चकोर हिमकर सों, ज्यों भौर इंदीबर सों, ज्यों कोबिद कहत हैं॥ पा०-१. (प्र० नु०) बुध गुन-अब गुन.... २. (३०) दोइ । ३. (३०) लपेटे ठे, अंतर...। (सं० प्र०)...लपेटे, औ अंतर...। ४. (प्र. मु०) जिहिं...। ५.(सं० प्र०) बाहर है जो 'दास' वही...(३०)...बाहर- यह 'दास' वही...। (भा० जी० (प्र० म०) जहाँ... वहै...। ६.(३०) (भा० जी०) (प्र० मु०) को..1 ७.(सं० प्र०) (३०) करें। .(०) ते ऍनवंत गरू करें, नित मंग ज्यों मोतिन संग विहारो। (२० प्र०)...करें, नित मूगन- मोतिन-संग... (प्र० मु०)...गुनवंत महा गाये, जग मंगा मोतिन संग.... ६.(०) (प्र० मु०)...जलधर सों, चकोर...!