पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२१९

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१८४ काय निर्णय प्रथम स्वमन के दोष से सुंदर-असुदर वस्तु भी असुदर-सुंदर लगती है, इस सामान्य बात को यहाँ जेठ-ज्वाल से प्रदर्शित की गयी है, अर्थात् जिससे जिसका हित हो वही भला है-सुदर है, यह सामान्य बात जगत को जलानेवाले जेठ. ज्वाल को जवासा-द्वारा जो से चाहने में कहा गया है। दूसरा उदाहरण भी साधरम की माला जथा- धूरि चदै नभ पोन-प्रसंग ते, कीच भई जल-संगत पाई। फूल-मिलें नृप पं पहुँचे कृमि, काठन'-संग अनेक बिथाई ॥ चंदन-संग कुदारु सुगंध है, नीम प्रसंग लहै करुवाई । 'दास' जू देख्यौ सही सब ठौरॅन, संगत को गुँन-दोष न जाई ।।. बैधरम ते जथा- जासों जाको होइ हित, बहै भलौ तिहिं 'दास' । सॉमन जग-ज्याँमन [नों, का लै कर जबास ।। अथ माला जथा- पंडित, पंडित सों सुख-मंडित, सायर, सायर के मन-माँन । संतै, संत भँनंत भलौ, गुनबंतन कों गुनबंत बखाँने ।। जा पर जाकौ हेत नहीं, कहिऐ सु कहा तिहिं की गति जाँन । सूर को सूर, सती को सती, अरु 'दास' जती को जती पैहचाँने ॥ "इससे पूर्व 'वेंकटेश्वर' की मुद्रित प्रति में 'अस्य तिलक' और-पंडित कों पंडित सों भानंद होत है, अरु साइर को साइर सों आनंद होत है, संत ते संत कों हरष होत है, गुनवंत सो गुनवंत कों हरप होत है तथा जैसे सूर कों सूर ते भानंद होत है, सती कों सतो ते आनंद होत है, तैसें-हीं जिहिं ते निहिको सबंध नहीं है वाते वाकों का आनंद होइगौ, जैसे-पंडित और मूर्ख बेस्या और संत..भादि ।' यह ग्रंथकार दासजी कृत 'तिलक' नहीं है, क्योंकि अन्यत्र के तिलकों को देखकर इसकी कृत्रिमता स्वय लपित हो जाती है।" पा०-१. (प्र० मु०) कांटन .. 1 ( भा० जी० ) कॉटन संग अनेक बधाई । २ (में) (भा० जी० ) (प्र० मु०) जाको जासों... । ३. (३०) हित । ४, (सं० प्र०) सों सुख माने । ५. (३०) जा पहें जा कहँ"। (प्र० मु०) जापर जाकर ..।

  • क० को० (रा० न० त्रि०) पृ० ४०३ प्र० भा०। क. कौ० (रा० न० त्रि०)

पृ०४०३-प्र०भा०।