पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२३२

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काव्य-निर्णय पुनः उदाहरन जथा- गुबज मॅनोज के महल सुहाए सुच्छ, गच्छ छबि-छाए कंज' कुंभ गज गाँमिनीं । उलटे नगारे, तँने तंबू, सैल भारे, ___ मठ-मंजुल सुधारे' चक्रबाक गत जाँमिनीं । 'दास' जुग संभु रूप, श्रीफल अनूप, मन-धाइल करत घाइलँन किल-कॉमिनीं। कंदुक - कलस बड़े संपुट सरस, मुकलित तॉमरस हैं 'उरोज" तेरे माँ मिनीं ।।. अस्य तिलक इहाँ ( तृतीय तुल्यजोगिता के संग ) लुप्तोपमा को संदेह संकर है। वि.-"किसी उर्दू शायर का यह कलाम भी देखिये, किस छुपे रूप से इन 'मनोज महल के गुंबजों' का वर्णन कर गये और पता भी न चला, जैसे- "अंगड़ाई भी लेने न पाए वह उठाके हाथ । देखा जो मुझको, छोड़ दिये मुस्करा के हाथ ॥" पर जाने दीजिये इसे, दासजी ने भी तुल्ययोगिता के साथ लुप्तोपमा का संदेह संकर मान, वर्णनकर एक सहज सुदरता हो ला दी है।" प्रतिवस्तूपमा लच्छन बरनन जथा- नॉम जु है उपमेइ को, सोई उपमाँ नाम । ताहि 'प्रतीबस्तूपमाँ', कहत सकलगुन-धाम ॥ जहँ उपमाँ-उपमेइ कौ, नाम-अरथ है एक । वाहू 'प्रतिबस्तूपमाँ', कहैं सुबुद्धि-बिबेक ।। वि०-“दासजी कथित 'प्रतिवस्तूपमा' का लक्षण विशेष स्फुट है। अस्तु, संस्कृत-श्राचार्यों के अनुसार 'प्रतिबस्तूपमा' वहाँ कही गयी है, जहाँ-उपमेय- उपमान के पृथक्-पृथक् वाक्यों में शब्द-भेद के द्वारा एक-ही समान धर्म को कहा चाय, क्योंकि प्रतिवस्तूपमा का अर्थ है-'प्रति-वस्तु अर्थात् , प्रत्येक वाक्यार्थ के ... पा०-१. (सं० प्र०) (प्र.)(३०) गज" । २. (प्र०:३) सुढ़ारे... | ३. (३०) (भा० जो०) मन-धावरे करन घाब बरन कि० ।४.(प्र० । बैठे... | ५. (प्र०) (३०)(प्र० नु०) रज" । ६. (सं० प्र०) ताकों... । (२) ताही । ७. (सं० प्र०) कहैं | प. (भा० जी०) सु कपि...।