पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/२३७

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२०२ काव्य-निर्णय साथ देखना, वर्णन करना ।" श्रतएव उपमेय (प्रकृत वयं ) में उपमान (अप्रकृत अवय) का भेद ज्ञानपूर्वक उक्ति-वैचित्र्य के साथ संभावना करना उत्प्रेक्षालंकार का विषय है । यह संभावना कल्पित है-अकल्पित नहीं । निश्चय, प्रेम, संदेह वा विकल्य तथा संभावना ये वस्तु-ज्ञान के भेद हैं । किसी वस्तु को वही वस्तु समझना 'निश्चय' है और उसे निश्चितरूप में दूसरी समझना 'भ्रम' वा 'भ्रांति' है । भ्रम के दूर होने पर ही उस भ्रम का-उस वस्तु का, पता लगता है और जब किसी वस्तु में इस प्रकार शंका हो कि यह वही वस्तु है या दूसरी, तब 'संदेह' वा 'विकल्प' होता है, किंतु जब उसके दूसरी वस्तु होने की विशेष शंका होती है तब 'संभावना' कही जाती है । भ्रम, संदेह तथा संभावनादि कोटियाँ हैं- वस्तुएँ हैं। भ्रम में असत्य को निश्चित रूप से सत्य, संदेह में दोनों सत्यासत्य का समरूप से विकल्प और संभावना में एक-विशेष कर असत्य वस्तु का अधिक प्रबल होना है। __ संस्कृताचार्यों-द्वारा लक्षण-प्रथों में 'उत्प्रेक्षा' के अनेक भेद कहे गये हैं, जो विशेष स्पष्ट नहीं हैं। साथ-ही वे चमत्कार-पूर्ण भी नहीं कहे जा सकते। पंडित- राज जगन्नाथ ने अपने 'रस-गंगाधर' में कहा है कि "उन सब का विवरण देना व्यर्थ है, कारण चमत्कार की विलक्षणता केवल हेतु, फल और स्वरूप में होती है। फिर भी उत्प्रेक्षा के वहाँ 'वाच्या' और 'प्रतीयमाना' दो भेदों का वर्णन करते हुए. 'वाच्या' के वस्तुत्प्रेक्षा, हेतुत्प्रेक्षा और फलोत्से क्षादि तीन भेद, तथा 'प्रतीयमाना' के हेतुत्प्रेक्षा ओर फलोत्पदा रूप से दो भेद माने हैं । वस्तुत्प्रेक्षा के प्रथम 'उक्त विषया' और 'अनुक्त विषया' दो भेद करते हुए इनके गुण, जाति, क्रिश और द्रव्य-गत भेदों का भाव-अभाव रूप में भी वर्णन मिलता है । वाच्या के हेतुपक्षा, फलोत्प्रेक्षा और प्रतीयमाना के हेतत्प्रेक्षा एवं फलोत्प्रेक्षा को प्रथम सिद्ध-विपया तथा असिद्ध-विषयादि भेद मान इनके गुण, जाति, क्रिया और द्रव्य-गत भेदों को भावाभाव रूप से प्रथक्-प्रथक् भेद माने गये हैं। दासजी ने भी वाच्या रूप वस्तुत्प्रेक्षा के प्रथम उत्ता-अनुक्ता भेदों को कह फिर हेतुरक्षा के सिद्धासिद्ध-विषयादि भेदों का वर्णन किया है। यही नहीं, फलोत्प्रेक्षा के भो उक्त भेद मान कर वर्णन किया गया है। दासजी ने लुप्तोपमा की भाँति लुप्तोप्रेक्षा और उसकी माला का भी यथा स्थान वर्णन किया है। अस्तु, “एक वस्तु की दूसरी वस्तु के रूप में संभावना की जाने पर, अर्थात् जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना की जाय वहाँ वस्तुत्यक्षा और यह उक्त विषया-जहाँ उत्प्रेक्षा का विषय कह कर संभावना की जाय होती है, जैसा कि दासजी के निम्नलिखित तीनों लक्षणों-उदाहरणों में कहा है, यथा-